SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 248
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४ / विशिष्ट निबन्ध : ६५ द्रव्य, गुण, कर्मको भी स्वरूपसत् ही मानना चाहिए। स्वरूपसत् में अतिरिक्त सत्ताका समवाय मानना तो बिलकुल ही निरर्थक है । इसी तरह गोत्वादि जातियोंको शाबलेयादि व्यक्तियोंसे सर्वथा भिन्न माननेमें अनेक दूषण आते हैं । यथा - जब एक गौ उत्पन्न हुई; तब उसमें गोत्व कहाँसे आयगा ? उत्पन्न होनेके पहिले गोत्व उस देशमें तो नहीं रह सकता; क्योंकि गोत्वसामान्य गोविशेषमें ही रहता है गोशन्य देशमें नहीं । निष्क्रिय होनेसे गोत्व अन्य देशसे आ नहीं सकता । यदि अन्य देशसे आवे भी तो पूर्वपिण्डको एकदेशसे छोड़ेगा या बिलकुल ही छोड़ देगा ? निरंश होने के कारण एकदेशसे पूर्वपिण्डको छोड़ना युक्तिसंगत नहीं है । यदि गोत्व पूर्णरूपसे पूर्व गोपिण्डको छोड़कर नूतन गौमें आता है; तब तो पूर्वपिण्ड अगौ- गोत्वशून्य हो जायगा, उसमें गौ व्यवहार नहीं हो सकेगा । यदि गोत्वसामान्य सर्वगत है; तो गोव्यक्तियोंकी तरह अश्वादिव्यक्तियों में भी गोव्यवहार होना चाहिए । अवयव और अवयवीके सम्बन्धमें एक बड़ी विचित्र बात यह है कि -संसार तो यह मानता है कि पटमें तन्तु, वृक्ष में शाखा तथा गौमें सींग रहते हैं, पर 'तन्तुओंमें पट, शाखाओंमें वृक्ष तथा सींगमें गौ' का मानना तो सचमुच एक अलौकिक ही बात है । अतः गुण आदिका गुणी आदिसे कथञ्चित्तादात्म्य सम्बन्ध मानना ही युक्तिसंगत है । कथञ्चित्तादात्म्यका तात्पर्य यह है कि गुण आदि गुणी आदि रूप ही हैं उनसे भिन्न नहीं हैं । जो ज्ञानस्वरूप नहीं है वह ज्ञानके समवायसे भी कैसे 'ज्ञ' बन सकता है ? यदि अज्ञ वस्तु भी ज्ञान के समवायसे 'ज्ञ' हो जाय; तो समवाय स्वयं 'ज्ञ' बन जायगा; क्योंकि समवाय आत्मामें ज्ञानका सम्बन्ध तभी करा सकता है जब वह स्वयं ज्ञान और आत्मासे सम्बन्ध रखे । कोई भी सम्बन्ध अपने सम्बन्धियोंसे असम्बद्ध रहकर सम्बन्धबुद्धि नहीं करा सकता । अतः यह मानना ही चाहिये कि -ज्ञानपर्यायवाली वस्तु ही ज्ञानके सम्बन्धको पा सकती है । अतः वैशेषिकका गुण आदिका गुणी आदिसे निरपेक्षसर्वथा भेद मानना नगमाभास है । । प्रकृति इस ज्ञानसुखादिरूप व्यक्त कार्य की पुरुष चेतनरूप तथा कूटस्थ - अपरिणामी इसी तरह सांख्यका ज्ञान सुखादिको आत्मासे भिन्न मानना नैगमाभास है । वह मानता है कि-सत्त्वरजस्तमोरूप-त्रिगुणात्मक प्रकृतिके ही सुख-ज्ञानादिक धर्म हैं, वे उसीमें आविर्भूत तथा तिरोहित होते हैं । इसी प्रकृति के संसर्गसे पुरुषमें ज्ञानादिकी प्रतीति होती है दृष्टिसे दृश्य है तथा अपने कारणरूप - अव्यक्त स्वरूपसे अदृश्य है । नित्य है । इस तरह वह चैतन्यसे बुद्धिको भिन्न समझकर उसे पुरुषसे भी भिन्न मानता है । उसका यह ज्ञान और आत्माका सर्वथा भेद मानना भी नगमाभास है; क्योंकि चैतन्य तथा ज्ञानमें कोई भेद नहीं है । बुद्धि, उपलब्धि, चैतन्य, ज्ञान आदि सभी पर्यायवाची शब्द हैं। यदि चैतन्य पुरुषका धर्म हो सकता है; तो ज्ञानको भी उसीका ही धर्म होना चाहिये । प्रकृतिकी तरह पुरुष भी ज्ञानादिरूपसे दृश्य होता है। 'सुख ज्ञानादिक सर्वथा अनित्य हैं, चैतन्य सर्वथा नित्य है' यह भी प्रमाणसिद्ध नहीं है; क्योंकि पर्यायदृष्टिसे उनमें अनित्यता रहनेपर भी चैतन्यसामान्यकी अपेक्षा नित्यता भी है । इस तरह वैशेषिकका गुण गुण्यादिमें सर्वथा भेद मानना तथा सांख्यका पुरुषसे बुद्ध्यादिका भेद मानना नैगमाभास है; क्योंकि इनमें अभेद अंशका निराकरण ही हो गया है | संग्रह - संग्रहाभास – समस्त पदार्थोंको अभेदरूपसे ग्रहण करनेवाला नय संग्रहनय है । यह पर संग्रह तथा अपरसंग्रह के भेदसे दो प्रकारका है । परसंग्रहमें सत् रूपसे समस्त पदार्थोंका संग्रह किया जाता है, तथा अपरसंग्रहमें द्रव्यरूपसे समस्त द्रव्योंका, गुणरूपसे समस्त गुणोंका, गोत्वरूपसे समस्त गौओंका आदि । यह अपरसंग्रह तब तक चलता है जब तक कि भेद अपनी चरम कोटि तक नहीं पहुँच जाता । अर्थात् जब व्यव ४-९ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012005
Book TitleMahendrakumar Jain Shastri Nyayacharya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya, Hiralal Shastri
PublisherMahendrakumar Jain Nyayacharya Smruti Granth Prakashan Samiti Damoh MP
Publication Year1996
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy