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________________ ६२ : डॉ. महेन्द्रकुमार जैन न्यायाचार्य स्मृति-ग्रन्थ अधिक हो; पर उसकी वस्तुस्पर्शिता, व्यावहारिकता, तटस्थवृत्ति एवं अहिंसाधारतामें तो सन्देह किया ही नहीं जा सकता। हो सकता है कि उत्तरकालमें मध्यकालीन आचार्यों द्वारा अंशतः परपक्ष खंडनमें पड़नेके कारण उस मध्यस्थताका उसरूपमें निर्वाह न हआ हो; पर वह दृष्टि उनके पास सदा जाग्रत् रही, और उसीके श्रेयःप्रकाशमें उन्होंने परपक्षको भी नयदष्टिसे उचित स्थान दिया। जिस तरह न्यायाधीशके फैसलेके उपक्रममें उभयपक्षीय वकीलोंकी दलीलोंके बलाबलकी जाँचमें एक दुसरेकी दलीलोंका यथासंभव उपयोग होकर अन्त में उनके निःसार भागकी समालोचनापर्वक व्यवहार्य फैसला होता है। उसी तरह जैनदर्शनमें एक एकान्तके खण्डनार्थ या उसके बलाबलकी जाँचके लिए द्वितीय एकान्तवादीकी दलीलोंका पर्याप्त उपयोग देखा जाता है । अन्तमें उनकी समालोचना होकर उनका समन्वयात्मक फैसला दिया गया है। एकान्तवादी दर्शनोंके समन्वयात्मक फैसलेकी ये मिसलें ही जैनदर्शनशास्त्र है। बात यह है कि भगवान महावीर कार्यशील अहिंसक व्यक्ति थे । वे वादी नहीं थे किन्तु सन्त थे । उन्हें वादकी अपेक्षा कार्य-सदाचरण अधिक पसन्द था, और जब तक हवाई बातोंसे कार्योपयोगी व्यवहार्य मार्ग न निकाला जाय तब तक कार्य होना ही कठिन था। मानस-अहिंसाके संवर्द्धन, परिपोषणके लिए अनेकान्तदृष्टिरूपी संजीवनीकी आवश्यकता थी। वे बुद्धिजीवी या कल्पनालोकमें विचरण करनेवाले नहीं थे। उन्हें तो सर्वाङ्गीण अहिंसाप्रचारका सुलभ रास्ता निकाल कर जगतको शान्तिका सहज सन्देश देना था। उन्हें मस्तिष्कके शुष्क कल्पनात्मक व्यायामकी अपेक्षा हृदयसे निकली हई व्यवहार्य अहिंसाकी छोटीसी आवाज ही अधिक कारगर मालम होती थी। यह ठीक है कि-बुद्धिजीवीवर्ग जिसका आचरणसे के न हो, बैठेठाले अनन्तकल्पना जालसे ग्रन्थ गंथा करे और यही कारण है कि-बद्धिजीवीवर्ग द्वारा वैदिक दर्शनोंका पर्याप्त प्रसार हुआ। पर कार्यक्षेत्रमें तो केवल कल्पनाओंसे ही निर्वाह नहीं हो सकता था; वहाँ तो व्यवहार्य मार्ग निकाले बिना चारा ही नहीं था। भग० महावीर ने अनेकान्तदृष्टि रूप, जिसे हम जैनदर्शनकी जान कहते हैं, एक वह व्यवहार्यमार्ग निकाला जिसके समचित उपयोगसे मानसिक, वाचिक तथा कायिक अहिंसा पूर्णरूपसे पाली जा सकती है। इस तरह भग० महावीरकी यह अहिंसास्वरूपा अनेकान्तदृष्टि ही जैनदर्शनके भव्य प्रासादका मध्यस्तम्भ है। इसीसे जैनदर्शनकी प्राणप्रतिष्ठा है। भारतीय दर्शनशास्त्र सचमुच इस अतुलसत्यको पाये बिना अपूर्ण रहता। जैनदर्शनने इस अनेकान्तदृष्टिके आधारसे बनी हए महत्त्वपूर्ण ग्रन्थराशि देकर भारतीय दर्शनशास्त्रके कोषागारमें अपनी ठोस और पर्याप्त पूंजी जमा की है। पूर्वकालीन युगप्रधान समन्तभद्र , सिद्धसेन आदि दार्शनिकोंने इसी दृष्टिके समर्थन द्वारा सत्-असत्, नित्यत्वानित्यत्व, भेदाभेद, पुण्य-पापप्रकार, अद्वैत-द्वैत, भाग्य-पुरुषार्थ, आदि विविध-वादोंमें पूर्ण सामञ्जस्य स्थापित किया । मध्यकालीन अकलंक, हरिभद्र आदि तार्किकोंने अंशतः परपक्षका खण्डन करके भी उसी दृष्टि को, प्रौढ़ किया। इसी दृष्टिके विविध प्रकारसे उपयोगके लिए सत्तभंगी, नय, निक्षेप आदिका निरूपण हुआ। इस तरह भग० महावीरने अपनी अहिंसाकी पूर्णसाधनाके लिए अनेकान्तदृष्टिका आविर्भाव करके जगत्को वह ध्र वबीजमन्त्र दिया जिसका समुचित उपयोग संसारको पूर्ण सुख-शान्तिका लाभ करा सकता है। नय-जब भग० महावीरने मानस अहिंसाकी पूर्णताके लिए अनेकान्तदष्टिका सिद्धान्त निकाला, तब उसको कार्यरूपमें परिणत करनेके लिए कुछ तफसीली बातें सोचना आवश्यक हो गया कि कैसे इस दृष्टिसे प्रचलित वादोंका उचित समीकरण हो? इस अनेकान्तदृष्टिकी कामयाबीके लिए किए गए मोटे-मोटे नियमोंका नाम नय है। साधारणतया विचार-व्यवहार तीन प्रकार के होते हैं-१. ज्ञानाश्रयी, २. अर्थाश्रयी, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012005
Book TitleMahendrakumar Jain Shastri Nyayacharya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya, Hiralal Shastri
PublisherMahendrakumar Jain Nyayacharya Smruti Granth Prakashan Samiti Damoh MP
Publication Year1996
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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