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________________ ५६ : डॉ० महेन्द्रकुमार जैन न्यायाचार्य स्मृति ग्रन्थ वृत्तान्त सुनाते हैं । जन्म लेते हो नवजातशिशुको माँके दूध पीनेकी अभिलाषा होती है । यह अभिलाषा पूर्वानुभावके बिना नहीं हो सकती; क्योंकि अभिलाषा पूर्वदृष्ट पदार्थकी सुखसाधनताका स्मरण करके होती है । अतः पूर्वानुभवका स्थान परलोक मानना चाहिये । "गर्भ में माँके द्वारा उपभुक्त भोजनादिसे बने हुए अमुक विलक्षण रसविशेष के ग्रहण करने से नवजात शिशुको जन्म लेते ही दुग्धपानकी ओर प्रवृत्ति होती है" यह कल्पना नितान्त युक्तिविरुद्ध है; क्योंकि गर्भ में रसविशेषके ग्रहण करनेसे ही यदि अभिलाषा होती है तो गर्भमें एक साथ रहनेवाले, एक साथ ही रसविशेषको ग्रहण करनेवाले युगल पुत्रोंमें परस्पर प्रत्यभिज्ञान एवं अभिलाषा होनी चाहिए, एकके द्वारा अनुभूत वस्तुका दूसरेको स्मरण होना चाहिए। प्रत्येक पृथिवी आदि भूतमें तो चैतन्यशक्तिका आविर्भाव नहीं देखा जाता अतः समस्तभूतोंके अमुक मिश्रण में ही जब एक विलक्षण अतीन्द्रिय स्वभावसिद्ध शक्ति माननी पड़ती है तब ऐसे विलक्षणशक्तिशाली अतीन्द्रिय आत्मतत्त्व के माननेमें ही क्या बाधा है ? ज्ञान प्राणयुक्त शरीरका भी धर्म नहीं हो सकता; क्योंकि अन्धकारमें शरीरका प्रत्यक्ष न होनेपर भी 'अहं ज्ञानवान्' इस प्रकारसे ज्ञानका अन्तः मानसप्रत्यक्ष होता है । यदि ज्ञानरूपसे शरीरका ग्रहण होता; तो कदाचित् ज्ञान शरीरका धर्म माना जाता। दूसरा व्यक्ति अपने नेत्रोंसे हमारे शरीरका ज्ञान कर लेता है पर शरीर के रूपादिकी तरह वह हमारे ज्ञानका ज्ञान नहीं कर सकता । शरीरमें विकार होनेपर भी बुद्धि विकार नहीं देखा जाता, शरीरकी पुष्टि या कमजोरीमें ज्ञानकी पुष्टि या कमजोरी नहीं देखी जाती, शरीर के अतिशय बलवान् होनेके साथ ही साथ बुद्धिबल बढ़ता हुआ नहीं देखा जाता, इत्यादि कारणोंसे यह सुनिश्चित है कि -ज्ञान शरीरका गुण नहीं है । ज्ञान, सुख आदि इन्द्रियों के भी धर्म नहीं हो सकते; क्योंकि चक्षुरादि इन्द्रियोंकी अनुपयुक्त दशामें मनसे ही 'मैं सुखी हूँ' मैं 'दुःखी हूँ' यह मानस प्रत्यक्ष अनुभवमें आता है । चक्षुरादि इन्द्रियोंकी शक्ति नष्ट हो जानेपर भी मानस स्मरणज्ञान देखा जाता है । अतः जीवनशक्ति या ज्ञानशक्ति भूतोंका गुण या पर्याय नहीं हो सकती, वह तो आत्माकी ही पर्याय है । यह जीव ज्ञान-दर्शनादि उपयोगवाला है । सुषुप्तादि अवस्थाओं में भी इसका ज्ञान नष्ट नहीं होता । अकलंकदेवने 'सुषुप्तादी बुद्धः ' इस पदका उपादान करके प्रज्ञाकरगुप्त आदिके 'सुषुप्तावस्थामें ज्ञान नष्ट या तिरोहित हो जाता है' इस सिद्धान्तका खंडन किया है । यह आत्मा प्राणादिको धारण करके जीता है इसलिए जीव कहलाता है । जीव स्वयं अपने कर्मोंका कर्त्ता तथा भोक्ता है । वही रागादिभावोंसे कर्मबन्धन करता है तथा वीतरागपरिणामोंसे कर्मबन्धन तोड़कर मुक्त हो जाता है । यह न तो सर्वव्यापी है और न बटबीजकी तरह अणुरूप ही; किन्तु अपने उपात्तशरीर के परिमाणानुसार मध्यम - परिमाणवाला है । कर्मसम्बन्धके कारण प्रदेशोंके संकोच - विस्तार होने से छोटे-बड़े शरीर के परिमाण होता रहता है । गुण -- इसी प्रसंग में गुण और गुणीके सर्वथा भेदका खण्डन करते हुए लिखा कि- अर्थ अनेकधर्मात्मक है । उसका अखण्डरूपसे ग्रहण करना कदाचित् संभव है, पर कथन या व्यवहार तो उसके किसी खास रूपधर्मसे ही होता है । इसी व्यवहारार्थं भेदरूपसे विवक्षित धर्मको गुण कहते हैं । गुण द्रव्यका ही परिणमन है, वह स्वतन्त्र पदार्थ नहीं है । चूंकि गुण पदार्थके धर्म हैं अतः ये स्वयं निर्गुण- गुणशून्य होते हैं । यदि गुण स्वतन्त्र पदार्थ माना जाय और वह भी द्रव्यसे सर्वथा भिन्न; तो 'अमुकगुण- ज्ञान अमुकगुणी - आत्मामें ही रहता है पृथिव्यादिमें नहीं इसका नियामक कौन होगा ? इसका नियामक तो यही है कि -ज्ञानका आत्मासे ही कथंचित्तादात्म्य है अतः वह आत्मामें ही रहता है पृथिव्यादिमें नहीं । वैशेषिकके मतमें 'एक गन्ध, दो रूप' आदि प्रयोग नहीं हो सकेंगे; क्योंकि गन्ध, रूप तथा संख्या आदि सभी गुण हैं, और गुण स्वयं निर्गुण होते हैं । यदि आश्रयभूत द्रव्यकी संख्याका एकार्थसमवाय सम्बन्धके कारण रूपादिमें उपचार करके 'एक गन्ध' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012005
Book TitleMahendrakumar Jain Shastri Nyayacharya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya, Hiralal Shastri
PublisherMahendrakumar Jain Nyayacharya Smruti Granth Prakashan Samiti Damoh MP
Publication Year1996
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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