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________________ ४ / विशिष्ट निबन्ध : ४९ पदार्थसे उत्पन्न होने के कारण ज्ञानमें विषयप्रतिनियम हो; तो जब इन्द्रिय आदिसे भी घटज्ञान उत्पन्न होता है तब उसे घटकी तरह इन्द्रिय आदिको भी विषय करना चाहिये। तदाकारतासे विषयप्रतिनियम माननेपर एक अर्थका ज्ञान करनेपर उसी आकारवाले यावत् समान अर्थोंका परिज्ञान होना चाहिए। तदुत्पत्ति और तदाकारता मिलकर यदि विषयनियामक हों; तो घटज्ञानसे उत्पन्न द्वितीय घटज्ञानको, जिसमें पूर्वज्ञानका आकार है तथा जो पूर्वज्ञानसे उत्पन्न भी हुआ है, अपने उपादानभूत पूर्वज्ञानको जानना चाहिये। पर बौद्धोंके सिद्वान्तानुसार 'ज्ञानं ज्ञानस्य न नियामकम्'–ज्ञान ज्ञानका नियामक नहीं होता। तदध्यवसाय ( अनुकूल विकल्पका उत्पन्न होना ) से भी वस्तुका प्रतिनियम नहीं होता; क्योंकि शुक्लशंखमें होनेवाले पीताकारज्ञानसे उत्पन्न द्वितीयज्ञानमें तदध्यवसाय देखा जाता है पर नियामकता नहीं है। अतः अपने-अपने कारणोंसे उत्पन्न होनेवाले अर्थ और ज्ञानमें परिच्छेद्य-परिच्छेदकभाव-विषय-विषयिभाव होता है। जैसे दीपक अपने तैलादि कारणोंसे प्रज्वलित होकर मिट्टी आदिसे उत्पन्न होनेवाले घटादिको प्रकाशित करता है, उसीतरह इन्द्रिय तथा मन आदि कारणोंसे उत्पन्न ज्ञान अपने कारणोंसे उत्पन्न अर्थको जानेगा। जैसे 'देवदत्त काठको छेदता है' यहाँ अपने-अपने कारणोंसे उत्पन्न देवदत्त तथा काष्ठमें कर्तृ-कर्मभाव है उसी तरह स्व-स्वकारणोंसे समुत्पन्न ज्ञेय और ज्ञानमें ज्ञाप्य-ज्ञापकभाव होता है। जैसे खदानसे निकली हुई मलयुक्त मणि अनेक शाण आदि कारणोंसे तरतम-न्यूनाधिकरूपसे निर्मल एवं स्वच्छ होती है उसी तरह कर्मयुक्त आत्माका ज्ञान अपनी विशुद्धिके अनुसार तरतमरूपसे प्रकाशमान होता है, और अपनी क्षयोपशमरूप योग्यताके अनुसार पदार्थों को जानता है। अतः अर्थको ज्ञान में कारण नहीं माना जा सकता। आलोककारणतानिरास-आलोकज्ञानका विषय आलोक होता है, अतः वह ज्ञानका कारण नहीं हो सकता। जो ज्ञानका विषय होता है वह ज्ञानका कारण नहीं होता जैसे अन्धकार । आलोकका ज्ञानके साथ अन्वय-व्यतिरेक न होनेसे भी वह ज्ञानका कारण नहीं कहा जा सकता। यदि आलोक ज्ञानका कारण हो तो उसके अभावमें ज्ञान नहीं होना चाहिये, पर अन्धकारका ज्ञान आलोकके अभाव में ही होता है। नक्तञ्चररात्रिचारी उल्ल आदिको आलोकके अभावमें ही ज्ञान होता है तथा उसके सदभावमें नहीं। 'आलोकके अभावमें अन्धकारकी तरह अन्य पदार्थ क्यों नहीं दिखते' इस शंकाका उत्तर यह है कि-अन्धकार अन्य पदार्थोंका निरोध करनेवाला है, अतः आलोकके अभावमें निरोध करनेवाला अन्धकार तो दिखता है पर उससे निरुद्ध अन्य पदार्थ नहीं। जैसे एक महाघटके नीचे दो चार छोटे घट रखे हों, तो महाघटके दिखनेपर भी उसके नीचे रखे हुए छोटे घट नहीं दिखते । अन्धकार ज्ञानका विषय है अतः वह ज्ञानका आवरण भी नहीं माना जा सकता। ज्ञानका आवरण तो ज्ञानावरण कर्म ही हो सकता है। इसीके क्षयोपशमकी तरतमतासे ज्ञानके विकासमें तारतम्य होता है । अतः आलोकके साथ ज्ञानका अन्वय-व्यतिरेक न होनेसे आलोक भो ज्ञानका कारण नहीं हो सकता । अर्थालोककारणताविषयक अकलंकके इन विचारोंका उत्तरकालीन माणिक्यनन्दि आदि आचार्योंने प्रायः उन्होंके ही शब्दोंमें अनुसरण किया है । प्रमाणका फल-प्रशस्तपादभाष्य तथा न्यायभाष्यादिमें हान, उपादान एवं उपेक्षाबुद्धिको प्रमाणका फल कहा है । समन्तभद्र, पूज्यपाद आदिने अज्ञाननिवृत्तिका भी प्रमाणके अभिन्न फलरूपसे प्ररूपण किया है। अकलंकदेव अज्ञाननिवृत्तिके विधिपरकरूपतत्त्वनिर्णयका तथा हान, उपादान, उपेक्षाबुद्धिके साथ ही परनिःश्रेयसका भी प्रमाणके फलरूपसे कथन करते हैं। केवलज्ञान वीतराग योगियोंके होता है अतः उनमें रागद्वेषजन्य हानोपादानका संभव ही नहीं है, इसलिये केवलज्ञानका फल अज्ञाननिवृत्ति और उपेक्षाबुद्धि है । इनमें अज्ञाननिवृत्ति प्रमाणका साक्षात् फल है, शेष परम्परासे । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012005
Book TitleMahendrakumar Jain Shastri Nyayacharya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya, Hiralal Shastri
PublisherMahendrakumar Jain Nyayacharya Smruti Granth Prakashan Samiti Damoh MP
Publication Year1996
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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