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________________ ४४ : डॉ० महेन्द्रकुमार जैन न्यायाचार्य स्मृति ग्रन्थ जाता है । अत: स्वपक्षसिद्धिसे ही जयव्यवस्था माननी चाहिए । स्वपक्ष सिद्धि करनेवाला यदि कुछ अधिक बोल जाय तो कुछ हानि नहीं । प्रतिवादी यदि विरुद्ध हेत्वाभामका उद्भावन करता है तो फिर उसे स्वतन्त्र रूपसे पक्षसिद्धिकी भी आवश्यकता नहीं है; क्योंकि वादीके हेतुको विरुद्ध कहनेसे प्रतिवादीका पक्ष तो स्वतः सिद्ध हो जाता है । हाँ, असिद्ध आदि हेत्वाभासों के उद्भावन करनेपर प्रतिवादीको अपना पक्ष भी सिद्ध करना चाहिए | स्वपक्षसिद्धि नहीं करनेवाला शास्त्रार्थ के नियमोंके अनुसार चलनेपर भी जयका भागी नहीं हो सकता । जाति - मिथ्या उत्तरोंको जाति कहते हैं । जैसे धर्मकीर्तिका अनेकान्तके रहस्य को न समझकर यह कहना कि - "यदि सभी वस्तुएँ द्रव्यदृष्टि से एक हैं तो द्रव्यदृष्टिसे तो दही और ऊँट भी एक हो गया । अत. दही खानेवाला ऊँटको भो क्यों नहीं खाता ?" साधर्म्यादिसम जातियोंको अकलंकदेव कोई खास महत्त्व नहीं देते और न उनकी आवश्यकता हा समझते हैं। आ० दिग्नागकी तरह अकलंकदेवने भी असदुत्तरोंको अनन्त कहकर जातियोंकी २४ संख्या भी अपूर्ण सूचित की है । श्रुत - समस्त एकान्त प्रवादोंके अगोचर, प्रमाणसिद्ध, परमात्माके द्वारा उपदिष्ट प्रवचन श्रुत है । द्वीप, देश, नदी आदि व्यवहित अर्थों में प्रमाण हे । हेतुवादरूप आगम युक्तिसिद्ध है । उसमे प्रमाणता होनेसे शेष अहेतुवाद आगम भी उसी तरह प्रमाण है । आगमकी प्रमाणताका प्रयोजक आप्तोक्तत्व नामका गुण होता है । शब्दका अर्थवाचकत्व - बौद्ध शब्दका वाच्य अर्थं नहीं मानते । वे कहते हैं कि शब्दकी प्रवृत्ति संकेतसे होती है । स्वलक्षण क्षणक्षयी तथा अनन्त हैं । जब अनन्त स्वलक्षणोंका ग्रहण भी संभव नहीं है तब संकेत कैसे ग्रहण किया जायगा ? ग्रहण करनेपर भी व्यवहार काल तक उसकी अनुवृत्ति न होनेसे व्यवहार कैसे होगा ? शब्द अतीतानागतकालीन अर्थों में भी प्रयुक्त होते हैं, पर वे अर्थ विद्यमान तो नहीं हैं । अतः शब्दका अर्थके साथ कोई सम्बन्ध नहीं है । यदि शब्दका अर्थके साथ सम्बन्ध हो तो शब्दबुद्धिका प्रतिभास इन्द्रबुद्धिकी तरह स्पष्ट होना चाहिए । शब्दबुद्धि में यदि अर्थ कारण नहीं है; तब वह उसका विषय कैसे हो सकेगा ? क्योंकि जो ज्ञानमें कारण नहीं है वह ज्ञानका विषय भी नहीं हो सकता । यदि अर्थ शब्दज्ञान में कारण हो; तो फिर कोई भी शब्द विसंवादी या अप्रमाण नहीं होगा, अतीतानागत अर्थों में शब्दको प्रवृत्ति ही रुक जायगी । संकेत भी शब्द और अर्थ उभयका ज्ञान होनेपर ही हो सकता है। एक प्रत्यक्षसे तो उभयका ज्ञान नहीं हो सकता; क्योंकि श्रावणप्रत्यक्ष अर्थको विषय नहीं करता तथा चाक्षुषादिप्रत्यक्ष शब्दको विषय नहीं करते । स्मृति तो निर्विषय एवं गृहीतग्राही होनेसे प्रमाण हो नहीं है । इसलिए शब्द अर्थका वाचक न होकर विवक्षाका सूचन करता है । शब्दका वाच्य अर्थ न होकर कल्पित - बुद्धिप्रतिबिम्बित अन्यापोहरूप सामान्य है । इसलिए शब्दसे होनेवाले ज्ञान में सत्यार्थताका कोई नियम नहीं है । अकलंकदेव इसका समालोचन करते हुए कहते हैं कि-पदार्थ में कुछ धर्म सदृश तथा कुछ धर्म विसदृश होते हैं । सदृशधर्मोकी अपेक्षासे शब्द का अर्थ में संकेत होता है। जिस शब्द में संकेत ग्रहण किया जाता है भले ही वह व्यवहारकाल तक नहीं पहुँचे पर तत्सदृश दूसरे शब्दसे अर्थबोध होने में क्या बाधा है ? एक घटशब्दका एक घट अर्थमें संकेत ग्रहण करनेके बाद तत्सदृश यावद् घटोंमें तत्सदृश यावद् घटशब्दोंकी प्रवृत्ति होती है । केवल सामान्यमें संकेत नहीं होता; क्योंकि केवल सामान्य में संकेत ग्रहण करनेसे विशेष में प्रवृत्ति रूप फल नहीं हो सकेगा । न केवल विशेषमें; अनन्त विशेषों में संकेतग्रहणकी शक्ति अस्मदादि पामर जनोंमें नहीं है । अतः सामान्यविशेषात्मक - सदृशधर्मविशिष्ट शब्द और अर्थव्यक्तिमें संकेत ग्रहण किया जाता है । संकेत ग्रहण के अनन्तर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012005
Book TitleMahendrakumar Jain Shastri Nyayacharya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya, Hiralal Shastri
PublisherMahendrakumar Jain Nyayacharya Smruti Granth Prakashan Samiti Damoh MP
Publication Year1996
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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