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________________ ३० : डॉ. महेन्द्रकुमार जैन न्यायाचार्य स्मृति-ग्रन्थ हाँ, इसमें जो स्मृति, संज्ञा, चिन्ता और अभिनिबोधज्ञानको शब्दयोजनाके पहिले अनिन्द्रियप्रत्यक्ष कहा है उसे किसी भी अन्य आचार्यने स्वीकार नहीं किया। उन्हें सर्वांशमें अर्थात् शब्दयोजनाके पूर्व और पश्चात् दोनों अवस्थाओंमें परोक्ष ही कहा है। यही कारण है कि आचार्य प्रभाचन्द्रने लघीयस्त्रयकी 'ज्ञानमाय' कारिकाका यह अर्थ किया है कि-'मति, स्मृति, संज्ञा, चिन्ता और अभिनिबोधज्ञान शब्दयोजनाके पहिले तथा शब्दयोजनाके बाद दोनों अवस्थाओंमें श्रुत हैं अर्थात् परोक्ष है।' यद्यपि जिनभद्रगणिक्षमाश्रमणने अपने विशेषावश्यकभाष्यमें प्रत्यक्षके दो भेद करके इन्द्रियानिन्द्रियजप्रत्यक्षको संव्यवहारप्रत्यक्ष कहा है, पर उन्होंने स्मृति आदि ज्ञानोंके विषयमें कुछ खास नहीं लिखा । इन्द्रियप्रत्यक्षको संव्यवहारप्रत्यक्ष मान लेनेसे लोकप्रसिद्धिका निर्वाह तथा दर्शनान्तरप्रसिद्धि का समन्वय भी हो गया और सूत्रकारका अभिप्राय भी सुरक्षित रह गया। प्रत्यक्ष-सिद्धसेनदिवाकरने प्रत्यक्षका-'अपरोक्ष रूपसे अर्थको जाननेवाला ज्ञान प्रत्यक्ष है' यह परोक्षलक्षणाश्रित लक्षण किया है। यद्यपि विशद ज्ञानको प्रत्यक्ष माननेकी परम्परा बौद्धोंमें स्पष्ट है, फिर भी प्रत्यक्षके लक्षणमें अकलंकके द्वारा विशद पदके साथ ही साथ प्रयुक्त साकार और अंजसा पद खास महत्त्व रखते हैं। बौद्ध निर्विकल्पज्ञानको प्रत्यक्ष कहते हैं। यह निर्विकल्पकज्ञान जैनपरम्परामें प्रसिद्ध-इन्द्रिय और पदार्थके योग्यदेशावस्थितिरूप सन्निकर्षके बाद उत्पन्न होनेवाले, तथा सत्तात्मक महासामान्यका आलोचन वाले अनाकार दर्शनके समान है । अकलंकदेवकी दृष्टिमें जब निर्विकल्पकदर्शन प्रमाणकोटिसे ही बहिर्भूत है तब उसे प्रत्यक्ष तो कहा ही नहीं जा सकता। इसी बातकी सूचनाके लिए उन्होंने प्रत्यक्षके लक्षणमें साकार पद रखा, जो निराकारदर्शन तथा बौद्धसम्मत निर्विकल्पप्रत्यक्षका निराकरणकर निश्चयात्मक विशद ज्ञानको ही प्रत्यक्षकोटिमें रखता है । बौद्ध निर्विकल्पक प्रत्यक्षके बाद होनेवाले 'नीलमिदम्' इत्यादि प्रत्यक्षज विकल्पोंको भी संव्यवहारसे प्रमाण मान लेते हैं। इसका मल यह है कि प्रत्यक्षके विषयभूत दृश्य-स्वलक्षणमें विकल्पके विषयभूत विकल्प्यसामान्यका आरोपरूप एकत्वाध्यवसाय करके प्रवृत्ति करनेपर स्वलक्षण ही प्राप्त होता है। अतः विकल्पज्ञान संव्यवहारसे विशद है। इसका निराकरण करने के लिए अकलंकदेवने 'अञ्जसा' पदका उपादान करके सूचित किया कि विकल्पज्ञान संव्यवहारसे नहीं किन्तु अंजसा-परमार्थरूपसे विशद है। अनमान आदि ज्ञानोंसे अधिक विशेषप्रतिभासका नाम वैशद्य है। जिस तरह अनुमान आदि ज्ञान अपनी उत्पत्तिमें लिंगज्ञान आदि ज्ञानान्तरको अपेक्षा करते हैं उस तरह प्रत्यक्ष अपनी उत्पत्तिमें किसी अन्य ज्ञानकी आवश्यकता नहीं रखता, यही अनुमानादिसे प्रत्यक्षमें अतिरेक-अधिकता है। अकलंकदेवने इतरवादिसम्मत प्रत्यक्षलक्षणोंका निराकरण इस प्रकार किया है बौद्ध-जिसमें शब्दसंसर्गकी योग्यता नहीं है ऐसे निर्विकल्पज्ञानको प्रत्यक्ष प्रमाण मानते हैं सविकल्पको नहीं, क्योंकि विकल्पज्ञान अर्थक अभावमें भी उत्पन्न होता है। निर्विकल्पक प्रत्यक्षके द्वारा यद्यपि अर्थमें रहनेवाले क्षणिकत्वादि सभी धर्मोंका अनुभव हो जाता है, पर वह नीलादि अंशोंमें 'नीलमिदम्' इत्यादि विकल्पज्ञानके द्वारा व्यवहारसाधक होता है, तथा क्षणिकत्वादि अंशोंमें यथासंभव अनुमानादि विकल्पों द्वारा। अतः निर्विकल्पक 'नीलमिदम्' इत्यादि विकल्पोंका उत्पादक होनेसे तथा अर्थस्वलक्षणसे उत्पन्न होनेके कारण प्रमाण है। विकल्पज्ञान अस्पष्ट है; क्योंकि वह परमार्थसत् स्वलक्षणसे उत्पन्न नहीं होता। सर्वप्रथम अर्थसे निर्विकल्प ही उत्पन्न होता है। निर्विकल्पकमें असाधारण क्षणिक परमाणुओंका प्रतिभास होता है । उस निर्विकल्पक अवस्थामें कोई भी विकल्प अनुभवमें नहीं आता। विकल्पज्ञान कल्पितसामान्यको विषय करनेके कारण तथा निर्विकल्पकके द्वारा गहीत अर्थको ग्रहण करनेके कारण प्रत्यक्षाभास है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012005
Book TitleMahendrakumar Jain Shastri Nyayacharya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya, Hiralal Shastri
PublisherMahendrakumar Jain Nyayacharya Smruti Granth Prakashan Samiti Damoh MP
Publication Year1996
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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