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________________ ४/ विशिष्ट निबन्ध : २७ ही । जैनकी दृष्टिसे तो एक सामान्य-विशेषात्मक अर्थ सभी प्रमाणोंका विषय होता है । तब अनधिगतार्थग्राहि पदका जैनोक्त प्रमाणलक्षणमें क्या उपयोग हो सकता है ?' अकलंकदेवने इसका उत्तर दिया है कि-वस्तु अनन्तधर्मवाली है। अमुक ज्ञानके द्वारा वस्तुके अमक अंशोंका निश्चय होनेपर भी अगहीत अंशोंको जाननेके लिए प्रमाणान्तरको अवकाश रहता है। इसी तरह जिन ज्ञान अंशोंमें संवाद हो जानेसे निश्चय हो गया है, उन अंशोंमें भले ही प्रमाणान्तर कुछ विशेष परिच्छेद न करें पर जिन अंशोंमें असंवाद होनेसे अनिश्चय या विपरीतनिश्चय है उनका निश्चय करके तो प्रमाणान्तर विशेष परिच्छेदक होनेके कारण अनधिगतग्राहिरूपसे प्रमाण ही हैं। प्रमाणसम्प्लबके विषयमें यह बात और भी ध्यान देने योग्य है कि-अकलंकदेवने प्रमाणके लक्षणमें अनधिगतार्थग्राहि पदके प्रवेश करने के कारण अनिश्चितांशके निश्चयमें या निश्चितांशमें उपयोगविशेष होनेपर प्रमाणसम्प्लव माना है, जब कि नैयायिकने अपने प्रमाणलक्षणमें ऐसा कोई पद नहीं रखा, अतः उसकी दृष्टिसे वस्तु गृहीत हो या अगृहीत, यदि इन्द्रियादि कारणकलाप मिल जायँ तो अवश्य ही प्रमाणकी प्रवृत्ति होगी, इसी तरह उपयोग विशेष हो या न हो, कोई भी ज्ञान इसलिए अप्रमाण नहीं होगा कि उसने गृहीत को ग्रहण किया है । तात्पर्य यह कि नैयायिकको प्रत्येक अवस्थामें प्रमाणसम्प्लव स्वीकृत है । अकलंकदेवने बौद्ध मतमें प्रमाणसम्प्लवकी असंभवताके कारण 'अनुमानकी अप्रवृत्ति' रूप दूषण देते हुए कहा है कि जब आपके यहाँ यह नियम है कि प्रत्यक्ष के द्वारा वस्तुके समस्त गुणोंका दर्शन हो जाता है। तब प्रत्यक्षके द्वारा सर्वांशतया गृहीत वस्तुमें कोई भी अनधिगत अंश नहीं बचा, जिसके ग्रहणके लिए अनुमानको प्रमाण माना जाय । अनुमानके विषयभूत अन्यापोहरूप सामान्यमें विपरीतारोपकी संभावना नहीं है, अतः समारोपव्यवच्छेदार्थ भी अनुमान प्रमाण नहीं हो सकता। अकलंकोत्तरवर्ती आ० माणिक्यनन्दिने अनधिगतार्थकी जगह कुमारिलके अपूर्वार्थ पदको स्थान दिया। पर विद्यानन्द तथा उनके बाद अभयदेव, वादिदेव, हेमचन्द्र आदि आचार्योंने अनधिगत या अपूर्वार्थ किसी भी पदको अपने लक्षणों में नहीं रखा। ज्ञान का स्व-परसंवेदन विचार-ज्ञानके स्वरूपसंवे दनके विषयमें निम्न वाद हैं-१. मीमांसकका परोक्षज्ञानवाद, २. नैयायिकका ज्ञानान्तरवेदज्ञानवाद, ३. सांख्यका प्रकृतिपर्यायात्मक ज्ञानका पुरुष द्वारा संचेतनवाद, ४. बौद्धका साकार-स्वसंवेदनज्ञानवाद, ५. जैनका निराकार-स्वसंवेदनज्ञानवाद । अकलंकदेवने इतर वादोंकी समालोचना इस प्रकार की है परोक्षज्ञानवादनिरास-यदि ज्ञान को परोक्ष माना जाय अर्थात ज्ञान स्वयं अपने स्वरूपको न जान सके, तब उस परोक्षज्ञानके द्वारा जाना गया पदार्थ हमारे प्रत्यक्षका विषय नहीं हो सकेगा; क्योंकि आत्मान्तरके ज्ञानसे हमारे ज्ञान में यही स्वकीयत्व है कि वह हमारे स्वयं प्रत्यक्षका विषय है, उसे हम स्वयं उसीके द्वारा प्रत्यक्ष कर सकते हैं, जब कि आत्मान्तरके ज्ञानको हम स्वयं उसीके द्वारा प्रत्यक्ष नहीं करते। यही कारण है कि आत्मान्तरके ज्ञानके द्वारा हमें पदार्थका प्रत्यक्ष नहीं होता । जब ज्ञान स्वयं प्रत्यक्ष नहीं तब उसकी सिद्धि अनुमानसे भी कैसे होगी? क्योंकि अस्वसंविदित अर्थप्रकाशरूप लिंगसे अज्ञात धर्मि-ज्ञानका अविनाभाव ही गृहीत नहीं है। अर्थप्रकाशको स्वसंविदित माननेपर तो ज्ञानकी कल्पना ही निरर्थक हो जायगी; क्योंकि स्वार्थसंवेदी अर्थप्रकाशसे स्व और अर्थ उभयका परिच्छेद हो सकता है। इसी तरह विषय, इन्द्रिय, मन आदि भी परोक्ष ज्ञानका अनुमान नहीं करा सकते; क्यों कि एक तो इनके साथ ज्ञानका अविनाभाव असिद्ध है, दूसरे इनके होनेपर भी कभी-कभी ज्ञान नहीं होता अतः ये व्यभिचारी भी हैं। यदि विषयजन्य ज्ञानात्मक सुखादि परोक्ष हैं; तब उनसे हमें अनुग्रह या परिताप नहीं हो सकेगा। अपने सुखादिको अनुमानग्राह्य मानकर अनुग्रहादि मानना तो अन्य आत्माके सुखसे व्यभिचारी है, अर्थात् परकीय आत्माके सुखादिका हम उसकी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012005
Book TitleMahendrakumar Jain Shastri Nyayacharya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya, Hiralal Shastri
PublisherMahendrakumar Jain Nyayacharya Smruti Granth Prakashan Samiti Damoh MP
Publication Year1996
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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