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________________ १४ : डॉ. महेन्द्रकुमार जैन न्यायाचार्य स्मृति-ग्रन्थ मृत्युनं भविष्यन्न भवेदेवम्भूतमरिष्टमिति ।"-वातिकालंकार पृ० १७६ ।। प्रमेयकमलमार्तण्ड ( पृ० ११० A.) का यह उल्लेख-"ननु प्रज्ञाकराभिप्रायेण भाविरोहिण्युदयकार्यतया कृतिकोदयस्य गमकत्वात् कथं कार्यहेतौ नास्यान्तर्भावः"-इस बातका सबल प्रमाण है किप्रज्ञाकरगुप्त भाविकारणवादी थे। इसी तरह व्यवहितकारणवादके सिलसिले में अनन्तवीर्यका यह लिखना कि-"इति प्रज्ञाकरगुप्तस्यैव मतं न धर्मोत्तरादीनामिति मन्यते ।" ( सिद्धिवि० टी० पृ० १६१ A.) प्रज्ञाकरके व्यवहितकारणवादी होनेका खासा प्रमाण है । प्रज्ञाकरके इस मतको समकालीन धर्मोत्तर आदि तथा उत्तरकालीन शान्तरक्षित आदि नहीं मानते थे। २-स्वप्नान्तिकशरीर-प्रज्ञाकर स्वप्नमें स्थूल शरीरके अतिरिक्त एक सूक्ष्म शरीर मानता है। स्वप्नमें जो शरीरका दौडना, त्रास, भूख, प्यास, मेरुपर्वतादिपर गमन आदि देखे जाते हैं वे सब क्रियाएँ, मौजूदा स्थूलकायके अतिरिक्त जो सूक्ष्मशरीर बनता है, उसीमें होती हैं। इस सूक्ष्मशरीरको वह स्वप्नान्तिकशरीर शब्दसे कहता है । यथा "यथा स्वप्नान्तिकः कायः त्रासलंघनधावनैः । जाग्रदेहविकारस्य तथा जन्मान्तरेष्वपि ॥" "स्वप्नान्तिकशरीरसञ्चारदर्शनात् ।"-वार्तिकालंकार पृ० १४८, १८४ अनन्तवीर्याचार्य के सिद्धिविनिश्चयटीका ( पृ० १३८ B. ) में उल्लिखित "प्रज्ञाकरस्तु स्वप्नान्तिकशरीरवादी"......'' वाक्यसे स्पष्ट है कि यह मत भी प्रज्ञाकरगुप्तका था। ३-धर्मकीर्तिने सुगतकी सर्वज्ञताके समर्थन में अपनी शक्ति न लगाकर धर्मज्ञत्वका समर्थन ही किया है । पर प्रज्ञाकर धर्मज्ञत्वके साथ ही साथ सर्वज्ञत्वका भी समर्थन करते हैं। सर्वज्ञत्वके समर्थनमें वे 'सत्यस्वप्नज्ञान'का दृष्टान्त भी देते हैं । यथा "इहापि सत्यस्वप्नदर्शिनोऽतीतादिकं संविदन्त्येव ।"-वार्तिकालंकार पृ० ३९६ ४-पीतशंखादिज्ञानोंके द्वारा अर्थक्रिया नहीं होती, अतः वे प्रमाण नहीं है, पर संस्थानमात्र अंशसे होनेवाली अर्थक्रिया तो उनसे भी हो सकती है, अतः उस अंशमें उन्हें अनुमानरूपसे प्रमाण मानना चाहिये, तथा अन्य अंशमें संशयरूप । इस तरह इस एक ज्ञानमें आंशिक प्रमाणता तथा आंशिक अप्रमाणता है । यथा "पीतशंखादिविज्ञानं तु न प्रमाणमेव तथार्थक्रियाव्याप्तेरभावात् । संस्थानमात्रार्थ क्रियाप्रसिद्धावन्यदेव ज्ञानं प्रमाणमनुमानम्; तथाहि 'प्रतिभास एवम्भूतो यः स न संस्थानवर्जितः । एवमन्यत्र दृष्टत्वादनुमानं तथा च तत् ॥' ततोऽनुगानं संस्थाने, संशयः परत्रेति प्रत्ययद्वयमेतत् प्रमाणमप्रमाणं च, अनेन मणिप्रभायां मणिज्ञानं व्याख्यातम् ।"-वार्तिकालंकार पृ० ६ अकलंकदेवने प्रज्ञाकरगुप्तके उक्त सभी सिद्धान्तोंका खण्डन किया है यथा १-अकलंकदेवने सिद्धिविनिश्चयमें जीवका स्वरूप बताते हुए 'अभिन्नः संविदात्मार्थः स्वापप्रबोधादौ विशेषण दिया है। इसका तात्पर्य है कि-स्वाप और प्रबोध तथा मरण और जन्म आदिमें जीव अभिन्न रहता है, उसकी सन्तान विच्छिन्न नहीं होती। इसीका व्याख्यान करते हुए उन्होंने लिखा है कि'तदभावे मिद्धादेरनुपपत्तेः' यदि सुप्तादि अवस्थाओंमें ज्ञानका अभाव माना जायगा तो मिद्ध-अतिनिद्रा मर्छा आदि नहीं बन सकेंगी; क्योंकि सर्वथा ज्ञानका अभाव माननेसे तो मृत्यु ही हो जायगी। मर्छा और अतिनिद्रा व्यपदेश तो ज्ञानका सद्भाव माननेपर ही हो सकता है। हाँ, उन अवस्थाओंमें ज्ञान तिरोहित रहता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012005
Book TitleMahendrakumar Jain Shastri Nyayacharya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya, Hiralal Shastri
PublisherMahendrakumar Jain Nyayacharya Smruti Granth Prakashan Samiti Damoh MP
Publication Year1996
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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