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________________ ४६ : डॉ. महेन्द्रकुमार जैन न्यायाचार्य स्मृति-ग्रन्थ निरूपित करते हुए ठोस तर्क देकर यह भी सिद्ध किया है कि स्यातका अर्थ शायद नहीं है । अनेकान्त दर्शनको न्यायाधीशकी उपमा देते हुए कहा गया है कि 'प्रत्येक पक्षके वकीलों द्वारा अपने पक्षके समर्थनके लिए संकलित दलीलोंको फाइलकी तरह न्यायाधीशका फैसला भले ही आकारमें बड़ा न हो, पर उसमें वस्तुस्पर्श, व्यावहारिकता, सूक्ष्मता और निष्पक्ष वश्य होती है। उसी तरह एकान्तके समर्थन में प्रयक्त दलीलोंके भण्डार-भत एकान्तवादी दर्शनोंकी तरह जैनदर्शनमें विकल्प या कल्पनाओंका चरम विकास न हो, पर उसकी वस्तुस्पर्शिता, व्यावहारिकता, समतावृत्ति एवं अहिंमाधारितामें तो संदेह किया ही नहीं जा सकता। यही कारण है कि जैनाचार्योंने वस्तुस्थितिके आधारसे प्रत्येक दर्शनके दृष्टिकोणके समन्वयकी पवित्र चेष्टा की है और हर दर्शनके साथ न्याय किया है । यह वृत्ति अहिंसाहृदयीके सुसंस्कृत मस्तिष्ककी उपज है । यह अहिंसा स्वरूपा अनेकान्तदृष्टि ही जैनदर्शनके भव्य प्रासादका मध्य स्तम्भ है। इसीसे जैनदर्शनकी प्राणप्रतिष्ठा है। भारतीय दर्शन सचमुच इस अतुल सत्य को पाये बिना अपूर्ण रहता । जैनदर्शनने इस अनेकान्तदृष्टिके आधारसे बनी हुई महत्त्वपूर्ण ग्रन्थराशि देकर भारतीय दर्शनशास्त्रके कोषागारमें अपनी ठोस और पर्याप्त पंजी जमा की है।' (पृ० ५५।) 'लोक व्यवस्था' नामके चौथे अव्यायमें लोकके स्वरूप और छहों द्रव्योंका विवेचन है। इसकी चर्चामें स्वाभाविक ही द्रव्यके परिणमन, सत् तथा उसके उत्पाद, व्यय और ध्रौव्यसे युक्त होनेके प्रकरण आए हैं जिन्हें छहों द्रव्योंमें तर्क और उदाहरणके साथ समझाया गया है। विभाव परिणमनकी चर्चा करते हुए निमित्त और उपादानकी भी विशद व्याख्या इस अध्यायमें की गई है। कालवाद, स्वभाववाद और नियतिवादकी विभिन्न मान्यताओंकी समीक्षा भी इस अध्यायमें है । लेखकने केवल अन्य दर्शनोंकी भ्रामक मान्यताओंका ही खण्डन नहीं किया है, वरन् जैनदर्शनकी अनेकान्त पद्धतिमें आये एकान्त प्रदुषणकी भी आलोचना की है। नियतिवादके एक ऐसे ही प्रकरणमें श्रीकानजी स्वामी लिखित पुस्तक 'वस्तुविज्ञानमार' को मान्यताओंको एकान्तिक निरूपित करते हुए लेखकने कहा है कि ___ 'नियतिवादका एक आध्यात्मिक रूप और निकला है। इसके अनुसार प्रत्येक द्रव्यको प्रतिसमयकी पर्याय सुनिश्चित है। जिस समय जो पर्याय होनी है वह अपने नियत स्वभावके कारण होगी ही, उसमें प्रयत्न निरर्थक है। उपादानशक्तिसे ही वह पर्याय प्रकट हो जाती है, वहाँ निमित्तकी उपस्थिति स्वयमेव होती है, उसके मिलानेकी आवश्यकता नहीं। इनके मतसे पेट्रोलसे मोटर नहीं चलती, किन्तु मोटरको चलना हो है और पेट्रोलको जलना हो है। और यह सब प्रचारित हो रहा है द्रव्यके शुद्ध स्वभावके नामपर । इसके भीतर भूमिका यह जमाई जाती है कि-एक द्रव्य दूसरे द्रव्यका कुछ नहीं कर सकता। सब अपने आप नियतिचक्रवश परिणमन करते हैं। जिसको जहां जिस रूपमें निमित बनना है उस समय उसकी वहाँ उपस्थिति हो ही जायगी। इस नियतिवादसे पदार्थों के स्वभाव और परिणमनका आश्रय लेकर भी उनका प्रतिक्षणका अनन्तकाल तकका कार्यक्रम बना दिया गया है, जिसपर चलनेको हर पदार्थ बाध्य है । किसीको कुछ नया करनेका नहीं है। नियतिवादियोंके जो विविध रूप विभिन्न समयोंमें हुए हैं उन्होंने सदा पुरुषार्थको रेड मारी है और मनुष्यको भाग्यके चक्करमें डाला है।' (पृष्ठ ८४ ।) आचार्य कुन्दकुन्दके अकर्तृत्ववादको चर्चा करते हुए कहा गया है कि समयसारमें स्वभावका वर्णन करनेवाली गाथाको कुछ विद्वान नियतिवादके समर्थन में लगाते हैं परन्तु इस गाथामें सीधी बात यही बताई गई है कि कोई द्रव्य दुसरे द्रव्य में कोई नया गुण नहीं ला सकता, जो आयेगा वह उपादान योग्यताके अनुसार हो आवेगा। लेखकने प्रश्न उठाया है कि जब प्रत्येक जीवका प्रतिसमयका कार्यक्रम निश्चित है तब पुण्य-पाप और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012005
Book TitleMahendrakumar Jain Shastri Nyayacharya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya, Hiralal Shastri
PublisherMahendrakumar Jain Nyayacharya Smruti Granth Prakashan Samiti Damoh MP
Publication Year1996
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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