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________________ ३ / कृतियोंकी समीक्षाएँ : ३३ । इस ग्रन्थ में जगह-जगह आचार्य अकलंकदेवने विविध दर्शनोंके प्राचीन ग्रन्थोंके वाक्य उद्धृत किये हैं | पं० जीने उन सबकी अलग पहचान हेतु उतने अंशों को इन्वरटेड कामा ( ) में रख दिया है तथा जितने उद्धरणों के मूलग्रन्थोंकी जानकारी हुई, कोष्ठक में उनके नाम और सन्दर्भ आदि संख्यायें दे दीं, जितने अज्ञात रहे, उनके कोष्ठक खाली छोड़ दिये गये, ताकि विद्वानोंको ज्ञात होनेपर वे वहाँ लिख सकें । जिस तरह आ० अकलंकदेवकी शैली गूढ़ और शब्दार्थ गर्भित है, वे प्रतिपाद्य विषयको गंभीर और अर्थपूर्ण वाक्यों में सहज विवेचन करते चलते इतना ही नहीं, उस विषयको पूरी तरहसे समझाने के लिए सम्भाव्य प्रश्नोंको पूर्वपक्ष के रूप में प्रस्तुत करके उत्तरपक्ष के रूप में उनका समाधान करते हुए चलते हैं, उसी प्रकार पं० महेन्द्रकुमारजी की भी हिन्दीसारकी शैली भी अर्थगंभीर है । यद्यपि इस ग्रन्थ के हिन्दीसारको मूलग्रन्थके अंत में इकट्ठा प्रस्तुत किया है । किन्तु मूलग्रन्थकारका ऐसा कोई मुख्य विषय या स्थलका हार्द अवशिष्ट नहीं है, जिसे पं० जी ने स्पष्ट रूपमें प्रस्तुत न किया हो । सम्बद्ध कुछ-कुछ वार्तिकों और उसमें प्रस्तुत सुमन्त्रद्ध विषयको सम्पादकने एक साथ हिन्दीसारके रूपमें किया है । उदाहरणस्वरूप ग्रन्थके आरम्भ में मंगलाचरणका अर्थ करनेके बाद पं० जीने प्रथम अध्यायके आरम्भिक प्रथम एवं द्वितीय वार्तिक में प्रतिपाद्य विषयको सार रूपमें एक साथ इस प्रकार प्रस्तुत किया है - "उपयोगस्वरूप तथा श्रेयोमार्ग की प्राप्तिके पात्रभूत आत्मद्रव्यको ही मोक्षमार्गके जाननेकी इच्छा होती है । जैसे आरोग्यलाभ करनेवाले चिकित्सा के योग्य रोगीके रहनेपर ही चिकित्सामार्ग की खोज की जाती है, उसी प्रकार आत्मद्रव्यकी प्रसिद्धि होनेपर मोक्षमार्ग के अन्वेषणका औचित्य सिद्ध होता है ।" इसके बाद मात्र तीसरे वार्तिकका अर्थ बतलाते हुए लिखा कि- " संसारी आत्मा के धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष - इन चार पुरुषार्थों में मोक्ष ही अन्तिम और प्रधानभूत पुरुषार्थ है । अतः उसकी प्राप्तिके लिए मोक्ष मार्गका उपदेश करना ही चाहिए ।" इस वार्तिकके हिन्दीसारके बाद चौथेसे लेकर आठवें वार्तिक तक के विषयको एक साथ प्रश्न ( पूर्वपक्ष ) और उसके समाधान ( उत्तरपक्ष ) के रूपमें अर्थ लिखा । प्रथम अध्यायके प्रथमसूत्र ३९ से ४६ तकके ७ वार्तिकोंका अर्थ एक साथ ही नहीं अपितु उस सम्पूर्ण विषयको सुसम्बद्ध करते हुए "मिथ्याज्ञानसे बंध और सम्यग्ज्ञानसे मोक्ष” माननेवाले सांख्य, वैशेषिक, नैयायिक, बौद्ध आदि जैनेतर दर्शनोंकी एतद् विषयक मान्यताओंका अलग-अलग किन्तु सम्पूर्ण विवरण प्रस्तुत करते हुए रत्नत्रय - को मोक्षमार्ग प्रतिपादित करते हुए जैनधर्म सम्बन्धी मान्यताओंका औचित्य सिद्ध किया है । इसी प्रकारको शैलीमें पं० जीने सम्पूर्ण ग्रन्थका हिन्दीसार प्रस्तुत किया है । प्रस्तुत हिन्दी सारके इन अंशोंको उदाहरण के रूपमें यहाँ प्रस्तुत करनेका प्रयोजन पं० जीकी शैली बताना है । आपने मूलग्रन्थकारके सभी अंश और भावोंको किस तरह अपनी सधी हुए भाषा, चुने हुए शब्दों और प्रभावक शैली में प्रस्तुत किया है कि देखते ही बनता है। वस्तुतः किसी भी दार्शनिक या तात्त्विक ग्रन्थका किसी भी भाषा में ग्रन्थकारके सम्पूर्ण भावोंको अनुवाद के माध्यमसे प्रस्तुत करना जितना कठिन होता है, उसका सारांश प्रस्तुत करना उससे भी अधिक कठिन एवं चुनौतीपूर्ण कार्य होता है । फिर भी पं० जीका हिन्दीसार रूप अनुवाद तथा इस ग्रन्थका श्रेष्ठ सम्पादन रूप यह साहसपूर्ण कार्य उनकी विलक्षण प्रतिभाका परिचायक है । ३-५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012005
Book TitleMahendrakumar Jain Shastri Nyayacharya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya, Hiralal Shastri
PublisherMahendrakumar Jain Nyayacharya Smruti Granth Prakashan Samiti Damoh MP
Publication Year1996
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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