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________________ ३ / कृतियोंकी समीक्षाएँ : ३१ सिद्धान्ताचार्य पं० फलचन्दजी सिद्धान्तशास्त्रीकी पहचान इस क्षेत्रमें सर्वोपरि है । सिद्धान्ताचार्य पं० कैलाशचन्दजी शास्त्रीने यद्यपि अनेक प्राचीन ग्रन्थोंका सम्पादन और अनुवाद कार्य किया है, किन्तु इन्हें जैन इतिहासकारके रूपमें विशेष सम्मान प्राप्त है। मुख्यतः जैन पुराण एबं काव्य साहित्यके अनुवादकके रूपमें डॉ० पं० पन्नालालजीका महनीय योगदान है । नवीं शताब्दी के आचार्य विद्यानन्दके अधिकांश साहित्यके उद्धारकर्ताके रूपमें डॉ० दरबारलालजी कोठिया तथा अपभ्रशके महाकवि रइधू द्वारा सृजित साहित्यके उद्धारकर्ताके रूपमें डॉ० राजारामजी जैनका महनीय योगदान है। इसी तरह और भी अनेक विद्वानोंने साहित्यकी अनेक विधाओंपर महत्त्वपूर्ण कार्य करके अपना विशेष स्थान बनाया है।। प्रथम शतीके आचार्य उमास्वामी विरचित तत्त्वार्थसूत्र एक ऐसा लोकप्रिय ग्रन्थहै जिसपर व्याख्या लिखनेके कार्यको प्राचीन और अर्वाचीन आचार्यों और विद्वानोंने महान् गौरवपूर्णकार्य माना । वस्तुतः इस ग्रन्थमें जैनधर्मके चारों अनुयोगोंका सार समाहित है। इसीलिए अब तक इसपर शताधिक टीकग्रन्थ लिखे जा चुके हैं । यहाँ तत्त्वार्थसूत्रपर लिखी गई सर्वार्थ सिद्धि नामक व्याख्या-ग्रंथके आधारपर आ० अकलंकदेव द्वारा लिखित "तत्वार्य वार्तिक' के सम्पादन-कार्यकी समीक्षा प्रस्तुत है इस तत्त्वार्थवार्तिक ग्रन्थके सम्पादक एवं हिन्दीसार करनेवाले पं. महेन्द्रकुमारजी है। वस्तुतः अकलंकदेवके तार्किक, जटिल-साहित्यका यदि पं० महेन्द्र कुमारजी उद्धार नहीं करते तो शायद पं० जीकी प्रतिभा रूपमें इस अनुपम लाभसे हम सभी वंचित रह जाते । यद्यपि आपने अकलंकके अतिरिक्त आचार्य प्रभाचन्द तथा आचार्य हरिभद्र आदि और भी आचार्य ग्रन्थोंका भी सम्पादन किया है । जैसा कि पं० महेन्द्रकुमारजीके बहुमूल्य कृतित्वसे स्पष्ट है कि उन्होंने अनेक मूल ग्रन्थोंका सम्पादन किया है, किन्तु आ० उमास्वामीके तत्त्वार्थसूत्रपर सातवीं शतीके महान् आचार्य अकलंकदेव द्वारा टीकारूपमें रचित "तत्त्वार्थवार्तिक" ( तत्त्वार्थ राजवार्तिक ) का पं० जीने मात्र सम्पादन ही नहीं किया, अपितु उसका हिन्दीसार लिखकर उस ग्रन्थका हार्द समझनेका मार्ग भी प्रशस्त किया। तत्त्वार्थवार्तिक ग्रन्थ भारतीय ज्ञानपीठ, काशीके अन्तर्गत मतिदेवी जैनग्रन्थमालासे संस्कृत ग्रन्थांक १० एवं २०के क्रममें दो भागोंमें क्रमशः सन् १९५३ एवं १९५७में प्रकाशित हुए थे। द्वितीय संस्करण १९८२में प्रकाशित हुआ है । अभी कुछ वर्ष पूर्व सन् १९८७ में यह ग्रन्थ शब्दशः सम्पूर्ण अनुवाद सहित दो भागोंमें दुलीचन्द्र वाकलीवाल युनिवर्सल, एजेन्सीज, देरगाँव (आसाम) से प्रकाशित हुआ है। इसकी हिन्दी अनुवादिका है सुप्रसिद्ध विदुषी गणिनी आयिका सुपार्श्वमती माताजी । पूज्य माताजीने यह अनुवाद पं० महेन्द्रकुमारजी द्वारा सम्पादित इस ग्रंथके आधारपर किया । यद्यपि तत्त्वार्थवार्तिक पर पं० सदासुखदासजीके शिष्य पं० पन्नालालजी संघी, दूनीवालोंने वि० सं० १९२० के आसपास भाषा-वचनिका भी लिखी थी । सन् १९१५ में पं० गजाधरलालजीके सम्पादकत्वमें सनातन जैन ग्रन्थमाला, बनारससे तत्त्वार्थवार्तिक ग्रन्थ मलमात्र प्रकाशित हुआ था। उसके बाद पं० गजाधर लालजीके ही हिन्दी अनुवादको पं० मक्खनलाल जी न्यायालंकारके संशोधन एवं परिवर्धनके साथ भारतीय जैन सिद्धान्त प्रकाशिनी संस्था, कलकत्तासे हरीभाई देवकरण ग्रन्थमालाके क्रमांक ८वें पुष्पके रूपमें सन् १९२९ ई० में यह प्रकाशित हुआ । किन्तु इस ग्रन्थकी यह बहुत ही विशालकाय विस्तृत व्याख्या होने तथा वार्तिकके साथ टीका नहीं होनेसे स्वाध्यायियोंको कठिनाईका सामना करना पड़ता था। अतः पं० जी द्वारा संपादित यह ग्रन्थ हिन्दीसार सहित आ जानेसे समस्त पाठकोंको इसे समझने में सुविधा हुई । इस श्रमसाध्य उद्देश्यकी पूर्ति करते हुए, जिस ज्ञानसाधनाका कार्य पं० जीने किया है, वैसा शायद ही किसी दूसरेसे संभव होता ? पं० जीने ऐसे प्रामाणिक बनानेके लिए जयपर, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012005
Book TitleMahendrakumar Jain Shastri Nyayacharya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya, Hiralal Shastri
PublisherMahendrakumar Jain Nyayacharya Smruti Granth Prakashan Samiti Damoh MP
Publication Year1996
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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