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________________ ३ / कृतियोंकी समीक्षाएँ : ९ शास्त्रों में लिख दिया है । जैन परम्पराको तत्त्वार्थसूत्रके तृतीय और चतुर्थ अध्यायमें निबद्ध किया गया है । बौद्ध परम्परा भूगोल और खगोलले सम्बन्धमें जो बौद्ध परम्परा है, अभिधर्मकोशके आधारसे उसका विवरण इस प्रकार है बौद्ध परम्परा में चार द्वीप हैं— जम्बूद्वीप, पूर्वविदेह, अवरगोदानीय और उत्तरकुरु । चारों द्वीपोंके मध्य में देह, विदेह आठ अन्तर द्वीप हैं । यहाँ अवीचि, प्रतापन, तपन, महारौरव, रौरव, संघात, कालसूत्र और संजीवक ये आठ नरक हैं । स्वर्गलोकमें महाराजिक, व्यायस्त्रिंश आदि कई प्रकारके देव बतलाये गये हैं । महाराजिक और व्यायस्त्रिंश जातिके देव मनुष्योंके समान कामसेवन करते हैं । यामदेव आलिंगनसे, तुषित देव पाणिसंयोगसे, निर्माणरति देव हास्यसे और परिनिर्मित वशवर्ती देव अवलोकनसे काम सुखका अनुभव करते हैं । इस काम सेवनकी तुलना तत्त्वार्थसूत्रके निम्नलिखित सूत्रोंसे कीजिए - कायप्रवीचारा आ ऐशानात् । ४/७ शेषाः स्पर्श रूपशब्दमनः प्रवीचाराः । ४/८ । वैदिकपरम्परा यहाँ भूगोल और खगोल सम्बन्धी परम्पराका तीन आधारोंसे वर्णन किया गया है। एक आधार है योगदर्शनका व्यास भाष्य, दूसरा आधार है विष्णुपुराण और तीसरा आधार है श्रीमद्भागवत पुराण । इन. तीनों में प्रायः एक समान वर्णन है । कहीं कुछ भिन्नता भी दृष्टिगोचर होती है । इस परम्परामें भूलोक, अन्तरिक्षलोक, स्वर्गलोक, पाताललोक आदि सात लोक हैं । भूलोकपर जम्बू, प्लक्ष, शात्मलि, कुश, क्रौञ्च, शाक और पुष्कर ये सात द्वीप । ये द्वीप लवण, इक्षु, सुरा, घृत, दधि, दुग्ध और जल इन सात समुद्रोंसे घिरे हुए हैं। जम्बूद्वीपके मध्य में सुवर्णमय मेरुपर्वत है जो ८४ हजार योजन ऊँचा । मेरुके दक्षिणमें भारत, किम्पुरुष और हरिवर्ष ये तीन क्षेत्र हैं । तथा उत्तरमें रम्यक, हिरण्यमय और उत्तरकुरु ये तीन क्षेत्र हैं । समुद्रके उत्तरमें तथा हिमालयके दक्षिणमें भारत क्षेत्र है । पुष्करद्वीपके बीच में मानुषोत्तर पर्वत स्थित है । इस द्वीपमें महावीर और धातकीखण्ड ये दो क्षेत्र हैं । वैदिक परम्परामें स्वर्गलोकके माहेन्द्रलोक, ब्रह्मलोक आदि पाँच भेद हैं । योगदर्शनके अनुसार अवीचि, महाकाल, अम्बरीष, रौरव, महारौरव, कालसूत्र और अन्धतामिस्र ये सात नरक हैं । किन्तु श्रीमद्भागवतपुराण के अनुसार तामिस्र, अन्धतामिस्र, रौरव महारौरव, कालसूत्र, अन्धकूप, कुंभपीक आदि अट्ठाईस नरक हैं । इस प्रकार हम देखते हैं कि जैन, बौद्ध और वैदिक - इन तीनों परम्पराओंमें द्वीपों, समुद्रों, स्वर्गों और नरकका वर्णन पाया जाता है । इनकी संख्या में अवश्य भेद है । किन्तु जैनदर्शनकी परम्पराने ही असंख्यात द्वीप और समुद्र माने हैं; अन्य किसी परम्पराने नहीं । इसका कारण क्या है यह विचारणीय विषय है । यह सभीने माना है कि सूर्य और चन्द्रमा निरन्तर मेरुकी प्रदक्षिणा करते रहते हैं । संभवतः इस मान्यताका आधार प्राचीन परम्परा है । परन्तु आधुनिक विज्ञान के अनुसार इस परम्पराका कोई मेल नहीं बैठता है । फिर भी जैन, बौद्ध और वैदिक इन तीनों परम्पराओंके भूगोल और खगोलके तुलनात्मक अध्ययनसे यह निष्कर्ष निकलता है कि आजसे लगभग तीन हजार वर्ष पहले भूगोल और खगोलके सम्बन्ध में लगभग एक जैसी अनुश्रुतियाँ प्रचलित थीं । प्रस्तावना के अन्तमें विद्वान् सम्पादक महोदयने ग्रन्थ और ग्रन्थकार के सम्बन्ध में विस्तार से समीक्षात्मक विवेचन प्रस्तुत किया है । ३-२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012005
Book TitleMahendrakumar Jain Shastri Nyayacharya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya, Hiralal Shastri
PublisherMahendrakumar Jain Nyayacharya Smruti Granth Prakashan Samiti Damoh MP
Publication Year1996
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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