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________________ ३० : डॉ० महेन्द्रकुमार जैन न्यायाचार्य स्मृति-ग्रन्थ समयमें, जिस साधनसे जो अवस्था होनी है, उस द्रव्यकी वही अवस्था, उसी स्थानमें , उसी समयमें, उसी साधनसे होती है । इस नियमका कोई उल्लंघन नहीं कर सकता। दूसरे शब्दोंमें, जो होना है वहो होगा, जब होना है तभी होगा, जहाँ होना है वहीं होगा, जिस रीतिसे होना है उसी रीतिसे होगा, जिस साधनसे होना है उसी साधनसे होगा, जिस क्रमसे होना है उसी क्रमसे होगा। अतः जो क्रमबद्ध है, पूर्वनियत है वही होता है। होनेवाले कार्यके लिये तदनुरूप बुद्धि और पुरुषार्थ अपने आप होते हैं, निमित्त भी अपने आप मिल जाते हैं। होनी कोई टाल नहीं सकता, अनहोनी कोई कर नहीं सकता। क्रमबद्धपर्यायवादी अपने मन्तव्यको इस उक्ति द्वारा स्पष्ट करते हैं तादृशी जायते बुद्धिर्व्यवसायोऽपि तादृशः । सहायास्तादृशा एव यादृशो भवितव्यता ।। जैसी होनहार होती है वैसी बुद्धि हो जाती है, वैसा ही प्रयत्न होने लगता है, वैसे ही सहायक मिल जाते हैं। क्रमबद्धपर्यायका यह सिद्धान्त एकान्तनियतिवादका दूसरा नाम है। एकान्तनियतिवादमें प्रत्येक कार्य, उसके होनेका काल, निमित्त एवं पुरुषार्थ होते हैं, क्रमबद्ध पर्यायवादमें भी नियत होते हैं। इस सिद्धान्तका समर्थन इस तर्क द्वारा किया जाता है कि सर्वज्ञके ज्ञानमें समस्त द्रव्योंकी ( भूत, भविष्य और वर्तमान इन तीनों कालोंकी पर्याय झलकती हैं जिसका तात्पर्य यह है कि वे यह जानते हैं कि भविष्यमें किस द्रव्यकी क्या-क्या अवस्था होनेवाली है। इसी आधार पर वे कहते हैं जो जो देखी वोतराग ने सो सो होसी तीरा रे। अनहोनी कबहुँ नहीं होसी काहे होत अधोरा रे ॥ किन्तु यह सिद्धान्त समस्त जिनोपदेश और मोक्षमार्गके नियमों पर पानी फेर देता है क्योंकि इससे निम्नलिखित बातें सिद्ध होती हैं १-जीव पापसे बचने के लिए स्वतंत्र नहीं है क्योंकि क्रमबद्ध या नियत होनेके कारण ही पाप होते हैं और जो नियत है उसे कोई टाल नहीं सकता। २-जीव मोक्षकी साधना करनेके लिये स्वतंत्र नहीं है क्योंकि यदि वह नियत नहीं है तो वैसा करनेकी बद्धि भी जीवमें उत्पन्न नहीं हो सकती। ३-पाप होता है तो उससे डरनेको आवश्यकता नहीं है क्योंकि यदि स्वर्ग और मोक्ष नियत है तो पाप करनेके बावजूद वे होकर रहेंगे । ('काहे होत अधीरा रे ?' ) ४-मोक्षके लिये परेशान होने की जरूरत नहीं है क्योंकि यदि वह नियत है तो जब उसका क्रम आयेगा तब उसे करनेकी बुद्धि जीवमें अपने आप उत्पन्न होगी। ५-उपदेश देने और सुननेकी भी जरूरत नहीं है क्योंकि जो कार्य क्रमबद्ध नहीं है उसे करनेका विचार उपदेश देने पर भी नहीं आ सकता और जो क्रमबद्ध है उसको करनेकी बद्धि समय आने पर अपने आप उत्पन्न हो जायेगी । कहा भी है-'तादृशी जायते बुद्धि।' इस प्रकार इस सिद्धान्तके अनुसार जीवमें स्वच्छन्दता ( असंयम ) एवं अकर्मण्यता (मोक्षमार्गसे विमुखता ) आ जानेसे भी कोई हानि सिद्ध नहीं होती, जबकि सर्वज्ञके उपदेशके अनुसार उन्होंके कारण जीव अनन्तकाल तक संसारमें भटकता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012005
Book TitleMahendrakumar Jain Shastri Nyayacharya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya, Hiralal Shastri
PublisherMahendrakumar Jain Nyayacharya Smruti Granth Prakashan Samiti Damoh MP
Publication Year1996
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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