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________________ पण्डित महेन्द्रकुमारजीकी मृत्यु पर 'जैन संदेश' का सम्पादकीय • पं० कैलाशचन्द्र सिद्धान्तशास्त्री हमने कभी स्वप्न में भी यह कल्पना न की थी कि हमें अपने परम सुहृद और तीस वर्षके सहयोगी पं० महेन्द्रकुमारजी न्यायाचार्य के स्वर्गवास पर उनकी स्मृतिमें अपनी हतभाग्य लेखनी चलानी पड़ेगी । यह हमसे आठ वर्ष छोटे थे और अभी उनकी उम्र केवल ४७ वर्ष की थी । आज से लगभग तीस वर्ष पूर्व वह श्री स्याद्वाद महाविद्यालय, काशी में न्यायाध्यापक होकर आये थे । और इस पद पर उन्हें प्रतिष्ठित कराने वाले थे अमृतसर के जिनवाणीभक्त लाला मुसद्दीलालजी । लालाजी बम्बई परीक्षालय का परीक्षाफल देखकर जो विद्यार्थी सबसे अधिक अंक प्राप्त करता था, उसे छात्रवृत्ति दिया करते थे । पं० महेन्द्रकुमारजी अपने विद्यार्थी जीवनसे ही बड़े प्रतिभावान थे । सदा उच्चश्रेणीमें उत्तीर्णं होते थे । लालाजी की दृष्टिमें वह चढ़ गये । उन्होंने उन्हें छात्रवृत्ति दी । और जब वह शिक्षा समाप्त करके खुरई की जैनपाठशाला में अध्यापकी करने लगे तो लालाजीने स्याद्वाद महाविद्यालयके forfरयों पर जोर डालकर उन्हें जैनन्याय का अध्यापक बनवाया और कुछ समय तक ३० ) मासिक वेतन अपनी ओरसे दिया । लालाजी की इस दूरदर्शी दृष्टि ने जैनसमाज को एक ऐसा हीरा दिया जो यद्यपि पैदा हुआ था मध्यप्रदेश के खुरई नामक ग्राममें किन्तु विद्वानों की खान वाराणसी में आकर चमक उठा। उनके उच्च अध्ययनका क्रम वाराणसीमें चालू हुआ । यहाँ उन्होंने अपना अध्ययन चालू रखा । गवर्नमेंट कीन्स कॉलेज, बनारस की मध्यमा परीक्षा पास की और फिर एक-एक खण्ड करके छहों खण्ड पास किये । वह जैन समाज के प्रथम न्यायाचार्य थे । इसी बीच में प्रकाण्ड पं० सुखलालजी हिन्दू विश्वविद्यालय में स्थापित जैन चेयरके अध्यापक नियुक्त होकर आये | और पं० महेन्द्र कुमारजीसे उनका परिचय हुआ । और उन्होंने उनसे ग्रन्थ संपादन कलाका शिक्षण लेना आरंभ किया। उनका सबसे प्रथम सम्पादित ग्रन्थ था 'न्यायकुमुदचन्द्र' जो जैनन्याय का एक अपूर्व ग्रन्थ है । इस ग्रन्थ का प्रकाशन सेठ माणिकचन्द जैन ग्रन्थमाला, बम्बई की ओरसे हुआ । इस ग्रन्थके सम्पादनमें हम लोगोंने कई वर्ष तक श्रम किया। उसके बाद न्यायाचार्यजीने प्रमेयकमलमार्त्तण्ड का सम्पादन किया । और पं० सुखलालजी के साथ भी कई ग्रन्थों का सम्पादन किया। सिंधी जैन सिरीज से उनके द्वारा सम्पादित अकलंकग्रन्थत्रय का प्रकाशन हुआ । उसकी प्रस्तावनासे उनकी विद्वत्ता चमक उठी । बारह वर्ष तक श्री स्याद्वाद महाविद्यालय में न्यायाध्यापक रहकर पंडितजी बम्बईके महावीर जैनविद्यालयमें चले गये । वहाँ वह साहू यांसप्रसादजी के परिचयमें आये । साहू शान्तिप्रसादजीसे तो वह पहले ही परिचित हो चुके थे । इस परिचयके फलस्वरूप सन् '४४ में साहूजी की ओरसे भारतीय ज्ञानपीठ की स्थापना वाराणसी में हुई और पंडितजी पुनः बनारस लौट आये । ज्ञानपीठ की स्थापना का और उसके द्वारा स्थापित मूर्तिदेवी जैन ग्रन्थमालाके द्वारा अनेकों बहुमूल्य जैन ग्रन्थोंके प्रकाशमें लाने का बहुत कुछ पं० महेन्द्रकुमारजीको है । वह ज्ञानपीठ को एक केन्द्रीय जैनसंस्था बनाने का प्रयत्न बराबर करते रहे । उसीके फलस्वरूप 'ज्ञानोदय' नामक पत्र का जन्म हुआ जिसके वह सम्पादक रहे और उसके द्वारा उन्होंने अपनी स्वतन्त्र विचारधारा को सर्वसाधारण में फैलाने का प्रयत्न किया। पीछे उनका ज्ञानपीठसे कार्यकर्ता का सम्बन्ध टूट गया और वह हिन्दू विश्वविद्यालयमें ही बौद्धदर्शनके अध्यापक होकर रहने लगे । यहाँ रहते हुए उन्होंने एम० ए० पास किया । और अकलंकदेवके अपूर्व ग्रन्थ सिद्धिविनिश्चय का संपादन किया। इसमें सन्देह नहीं कि इस ग्रन्थके सम्पादनमें उन्होंने जी-तोड़ श्रम किया और सिद्धि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012005
Book TitleMahendrakumar Jain Shastri Nyayacharya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya, Hiralal Shastri
PublisherMahendrakumar Jain Nyayacharya Smruti Granth Prakashan Samiti Damoh MP
Publication Year1996
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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