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________________ २/ जीवन परिचय : व्यक्तित्व एवं कृतित्व : १९ उसी को मुख्य रूपसे अपने तर्कबाणों का लक्ष्य बनाया है । प्रज्ञाकरकृत । प्रमाणवार्तिक भाष्य प्रस्तुत ग्रन्थके प्रकाशन तक अप्रकाशित था किन्तु पं. महेन्द्रकुमारने अपने सम्पादनमें उसको पण्डित राहुल सांकृत्यायन प्रदत्त तिब्बतीय हस्तलिखित प्रति का पूरा उपयोग किया है और प्रमाणवातिकके भाष्यके सम्पादन का मार्ग और भी प्रशस्त कर दिया है। पंडितजीने प्रस्तुत ग्रन्थके प्रारम्भमें लम्बी प्रस्तावना लिखी है। उसमें दर्शनकी व्याख्या करते हुए ज्ञान और दर्शनकी जो विवेचना की है, वह विद्वानों के लिए पठनीय है । विषय-परिचयमें पंडितजीने ग्रन्यप्रतिपाद्य विषयोंका संक्षिप्त किन्तु सारगर्भित तुलनात्मक विवेचन किया है। उसमें श्री राहलजी द्वारा समर्थित प्रतीत्यसमुत्पादवादकी भी परीक्षा की गई है। ८-तत्त्वार्थवार्तिक आचार्य उमास्वातिकृत तत्त्वार्थसूत्र का जैन-साहित्यमें वही स्थान है, जो हिन्दुओं में गीता, बौद्धोंमें धम्मपद, इस्लाममें कुरान, क्रिश्चियनमें बाइबिल तथा पारसियोंमें जैन्दावेस्ताका है। जैनधर्मका सम्पूर्णसार उसमें समाहित है। इसका महत्त्व इसीसे समझा जा सकता है कि यह ग्रन्थ कुछ परिवर्तनोंके साथ दिगम्बर एवं श्वेताम्बर दोनों ही सम्प्रदायोंमें समान रूपसे मान्य है। ग्रन्थकी गरिमाको देखते हुए उस पर विभिन्न कालोंमें युगानुरूप विस्तृत टोकाएँ एवं भाष्य लिखे गए, जिनमें सर्वार्थ सिद्धि, तत्त्वार्थश्लोकवार्तिकालंकार तथा तत्त्वार्थवार्तिक आदि प्रमुख हैं। तत्त्वार्थवार्तिकका प्रकाशन जैन सिद्धान्त प्रकाशिनी संस्था, कलकत्ताकी ओरसे यद्यपि बहुत पहले ही हो चुका था। इसको दो हिन्दी टीकाएँ भी उपलब्ध होती हैं। एक टीका पं० पन्नालालजी दूनीवालोंकी है और दूसरी पण्डित मक्खनलालजी न्यायालंकार की। वह भी मुद्रित हो चुकी है । फिर भी इसका आधुनिक शैलीसे सम्पादित होकर उसका प्रकाशन अत्यावश्यक था। इसीके फलस्वरूप भारतीय ज्ञानपीठने सन् १९५७ में इसका प्रकाशन दो खण्डोंमें किया । उक्त दोनों खण्डोंमें कुल मिलाकर लगभग ९०० पृष्ठ हैं। प्रथम भागमें प्रथम चार अध्यायके साथ अन्तमें उनका हिन्दी सारांश तथा द्वितीय भागमें अन्तिम छह तथा उनका हिन्दी सारांश ग्रथित है। वर्तमानमें उक्त ग्रन्थ "तत्त्वार्थराजवातिक' के नामसे ही अधिक प्रसिद्ध है। जबकि इसका पूरा नाम तत्त्वार्थवातिक भाष्य अथवा तत्त्वार्थवार्तिकालंकार है। क्योंकि उसके प्रत्येक अध्यायके अन्तमें इसका उक्त नामसे उल्लेख किया गया है और संक्षिप्त नाम तत्त्वार्थवार्तिक कहा गया है। इस नामका उल्लेख वार्तिककारने आद्य मंगल श्लोकमें भी किया है। जैसा कि पूर्व में कहा जा चुका है, इसके कई शताब्दियों पूर्व तत्त्वार्थसूत्र पर सर्वार्थसिद्धि ( तत्त्वार्थवृत्ति ) नामक प्रसिद्ध टीका लिखी जा चुकी थी। उक्त तत्त्वार्थवार्तिक इस टीकाको भी सामने रखकर लिखा गया है । वार्तिककारने सर्वार्थसिद्धिके वाक्योंको कहीं वार्तिक रूपसे और कहीं टीकाका अंग बनाकर अपनी विशद् व्याख्याएँ लिखी हैं। यह बहत ही स्पष्ट है कि तत्त्वार्थवार्तिककारके सामने तत्त्वार्थभाष्य और उसमें स्वीकृत सूत्रपाठ भी उपस्थित था। तत्त्वार्थसूत्रकी रचनाके कारता पर प्रकाश डालनेवाली एक सर्वार्थसिद्धि-मान्य और दसरी तत्त्वार्थभाष्यभाग्य ये दो परम्पराएँ उपलब्ध होती हैं। भट्ट अकलंकदेवने अपनी उत्थानिकामें इन दोनोंको Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012005
Book TitleMahendrakumar Jain Shastri Nyayacharya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya, Hiralal Shastri
PublisherMahendrakumar Jain Nyayacharya Smruti Granth Prakashan Samiti Damoh MP
Publication Year1996
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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