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________________ न्यायाचार्य पण्डित महेन्द्रकुमार • महापण्डित श्री राहुल सांकृत्यायन आचार्य महेन्द्रकुमारके नामके साथ "स्वर्गीय" लगाने में हृदयमें असह्य वेदना होती है, ऐसी वेदना किसी आत्मीयके निधनपर भी नहीं हुई थी। हमारे लोग प्रतिभाओंकी कितनी कदर करते हैं, यह इसीसे मालम होगा कि वाराणसी जैसे बड़े शहर में इस महापुरुषकी जीवन समाप्तिकी सूचना किसी प्रमुख दैनिक पत्रने नहीं दी । मसूरीमें उनके स्वजनने सूचना न दी होती, तो इतने हो समय तक मैं यही समझता रहता कि महेन्द्रजी "सिद्धिविनिश्चय' के उद्धारमें लगे हुए हैं। बहुत पीछे एक साधारण साप्ताहिकने छापा"दिनांक २० मई; सायंकाल ७ बजे लकवाकी बीमारीमें पं० महेन्द्र कुमार जैन न्यायाचार्यका स्वर्गवास हो गया । १४ मईको करीब १२ बजे हिन्दू यूनिवर्सिटीमें अपने ही घरपर उन्हें बायें अंगमें लकवा लग गया था। दो दिनके बाद स्थिति कुछ सुधरने लगी थी, किन्तु पाँचवें दिन जब फिरसे लकवेका जोर पड़ा, तो सारा शरीर लकवाग्रस्त हो गया । इस स्थितिमें डॉक्टर लोग संभाल नहीं सके और अन्तमें २० मईको सायंकाल वे इस नश्वर शरीरको छोड़कर चले गये ।"-(जैनभारती ३१-५-५९) महेन्द्रजीका जन्म ११ मई १९११ को हुआ था, अर्थात् वह मुश्किल से ४८ वर्षके हो पाये थे । यही नहीं, अभी वह अपनी साधनाओंको दिनों-दिन बढ़ा रहे थे । एक ही वर्ष पहले उन्होंने पेकिंगमें मेरे पास लिखा था, कि मैं तिब्बती भाषा पढ़ने और साथ ही धर्मकीर्तिके "प्रमाण विनिश्चय" को फिरसे तिब्बती अनुवादके सहारे संस्कृतमें करने में लगा है। उस वक्त मुझे कितनी प्रसन्नता हुई थी। धर्मकीर्तिको युरोपके मधन्य विद्वान् भारतका कान्ट कहते हैं । उन्होंने बुद्धिवाद और वस्तुवादी प्रमाणशास्त्र पर लेखनी उठाई, और सात अमूल्य ग्रंथ लिखे । उनमें से सिर्फ एक छोटा-सा ग्रंथ 'न्यायविन्दु" मल संस्कृत में रह गया था। इन पंक्तियोंके लेखककी तिब्बत यात्राओंके फलस्वरूप "प्रमाणवार्तिक", "हेतुविन्दु", "वादन्याय", "संबंधपरीक्षा" चार ग्रंथ मूल संस्कृतमें मिलकर प्रकाशमें आये । “सन्तानान्तरसिद्धि" छोटा ग्रंथ होनेसे किसी समय भी तिब्बती अनुवादसे संस्कृतमें किया जा सकता था, पर "प्रमाण विनिश्चय", "प्रमाणवार्तिक" जैसा ही बड़ा ग्रंथ था, उसे ही महेन्द्रजी संस्कृतमें कर रहे थे । पर चिरंजीवी पद्मकुमारके पत्रके अनुसार "पूज्य" पिताजो ने 'प्रमाणविनिश्चय' का काम प्रारंभ कर दिया था, किन्तु वह पूरा न हो सका और बीच में ही हमें छोड़कर चले गये। ऊपरकी पंक्तियोंसे उस क्षतिका पूरा ज्ञान नहीं हो सकता जो कि आचार्य महेन्द्रके अवसान से हुआ है। भारत परतंत्रताके अन्धकारमें सात शताब्दियों तक भटकता और गिरावटकी ओर जाता रहा। उसकी बहुत सी अनमोल निधियाँ नष्ट हो गयीं, जिनमें अनमोल नथ भी थे। तो भी विद्याके लिए विदेह बने पंडितों ने संस्कृतके भंडारको रक्षा की, शास्त्रोंके अध्ययन और अध्यापनमें जीवन बिताया। पर, इस सारे समयमें एक बड़ी क्षति यह हुई, कि हमारे प्राचीन शास्त्रोंमें से कितनोंकी पढ़ाई छुट गयी । वाराणसी, नवद्वीप, पूणा, कुम्भाकोणम्के दिग्गज विद्वान् प्राचीन न्यायकी ओर हाथ बढ़ानेको भी क्षमता नहीं रखते थे। प्रथम विश्वयुद्धकी समाप्तिके समय तक यही हालत रही । वाराणसोमें पंडित अम्बादास शास्त्री किसी तरह "न्यायकुसुमांजलि" को पढ़ा दिया करते थे । नयी पीढ़ीके पंडितोंको इससे सन्तोष नहीं हुआ। उन्होंने उस संस्कृतपर अधिकार प्राप्त करने के लिए प्रयत्न आरंभ किया, जिसके बिना जैन, बौद्ध, ब्राह्मणिक आदि प्राचीन दर्शन ग्रंथ बन्द पोथी बने हए थे । अपने समयके सर्वश्रेष्ठ काशीके विद्वान् महामहोपाध्याय पं० बालकृष्ण शर्माने एक बार अपनी लिखी कापियाँ दिखलायी थीं, जिनमें वात्स्यायन, उद्योतकर, कुमारिल, वाचस्पति, जयन्त, श्रीहर्ष आदिकी कृतियों से बौद्धोंके पक्षको जमा करके उन्हें समझने की कोशिश की गयी थी। आजके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012005
Book TitleMahendrakumar Jain Shastri Nyayacharya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya, Hiralal Shastri
PublisherMahendrakumar Jain Nyayacharya Smruti Granth Prakashan Samiti Damoh MP
Publication Year1996
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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