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________________ पंचम खण्ड : ६६१ शंका १७ – उपचारका लक्षण क्या है ? निमित्त कारण और व्यवहारनयमें यदि क्रमशः कारणता और नयत्वका उपचार है, तो इनमें उपचार लक्षण घटित कीजिए । समाधान - परके संबंघसे जो व्यवहार किया जाता है उसे उपचार कहते हैं, जैसे मिट्टी के घड़ेको घीका घड़ा कहना उपचार है । या जीवको वर्णादिवान कहना उपचार कथन 1 वस्तुके भिन्न कर्ता - कर्मादि बतलाना व्यवहार या उपचार है, किन्तु अभिन्न कर्ता-कर्म बतलाना निश्चय है । उपचार में भी कारण शब्दका प्रयोग इसलिए किया है कि निमित्त और उपचार से साथ कार्यकी बाह्य व्याप्ति है । निमित्तसे कथन होता है । कार्य निमित्तकी उपस्थितिमें उपादानसे होता है । जैसे सम्पत्ति आदिकी प्राप्ति अपने भाग्यसे होती है, उसमें सहयोगी निमित्त बन जाते हैं । अतः व्यवहार इसलिए अभूतार्थ कहा जाता कि जैसा वह कहता है, वस्तुका वह असली स्वरूप नहीं हैं और निश्चय इसलिए भूतार्थ कहा जाता है क्योंकि उसका विषय ही वस्तुका असली स्वरूप है । इस प्रकार खानिया चर्चाके अध्ययन मननसे ज्ञात होता है, जितने भी कुछ तथ्य विवादास्पद बना दिये गये । यदि मध्यस्थ होकर शान्तिसे उनका निर्णय करें तो सभी विवाद सुलझ सकते हैं । पूज्य आचार्य श्री शिवसागर महाराजने इसीलिए इस तत्वचर्चाके आयोजन करनेकी प्रेरणा दी थी। इस तत्त्वचर्चा में आदरणीय पण्डित फूलचन्द्र जी सिद्धान्तशास्त्रीकी चारों अनुयोगोंके अधिकार पूर्ण विद्वत्ताका परिचय मिल जाता है । ऐसे विद्वान् कम ही देखनेको मिलते हैं, जिनका चारों अनुयोगोंका इतना सुलझा हुआ सुस्पष्ट अगाध ज्ञान हो । तत्त्वज्ञानका यथार्थज्ञान प्राप्त करनेके लिए जिज्ञासु बंधुओंको खानिया तत्त्वचर्चाका अध्ययन-मनन अवश्य ही करना चाहिए । लब्धिसार-क्षपणासार : एक अनुशीलन Jain Education International पं० नरेन्द्रकुमार भिसीकर, शोलापुर चार अनुयोगोंके रूपमें उपलब्ध जिनागममें आत्म-तत्त्व और उसकी विशुद्धिका ही मुख्यता से वर्णन किया गया है । करणानुयोगका मूलसार लेकर "लब्धिसार" में सम्यग्दर्शन और सम्यक्चारित्र तथा उसकी उत्पत्तिके फलका सांगोपांग विवेचन किया गया है । औपशमिक, क्षायोपशमिक और क्षायिक तीनों प्रकारके सम्यग्दर्शनोंमें आत्मविशुद्धि ही मुख्य है । यथार्थमें सम्यग्दर्शन के तीन भेद निमित्तकी अपेक्षा वर्णित किए गये हैं । उक्त ग्रन्थमें आत्मा के दर्शन और चारित्र गुण रूप शक्तियोंके प्रकट होनेकी योग्यता रूप लब्धिका विशद विवेचन किया गया है । इसलिये इसका नाम “लब्धिसार" सार्थक है । मुख्य रूप से दर्शनलब्धि और चारित्रलब्धिका स्वरूप और उनके भेदोंका तथा उनकी कारण सामग्रीका वर्णन छह अधिकारोंमें किया गया है । अधिकारोंका विभाजन इस प्रकार किया गया है : ( १ ) प्रथमोपशम सम्यक्त्व लब्धि, (२) क्षायिक सम्यक्त्व लब्धि, (२) देशसंयम लब्धि, (४) सकलसंयम लब्धि, (५) औपशमिक चारित्र लब्धि, (६) क्षायिक चारित्र लब्धि | For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012004
Book TitleFulchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain, Kailashchandra Shastri
PublisherSiddhantacharya Pt Fulchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Varanasi
Publication Year1985
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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