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________________ ६६० : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन ग्रन्थं कहीं मोक्षमार्ग या धर्म भी कहा गया है, यह उपचरित कथन ही है। निश्चयसे वह शुभरागभाव है। वीतराग भाव नहीं है । पुण्यपाप रहित भाव ही वीतरागभाव है । शंका १४ – पुष्य अपनी चरम सीमाको पहुँचकर अथवा आत्मा - स्वतः छूट जाता है या उसको छुड़ाने के लिए किसी उपदेश या प्रयत्न की जरूरत होती है ? समाधान -- इसका समाधान भी १३वीं शंकाके समाधानमें दिया गया है कि पहले पुण्यकी गलत मान्यता छुड़ाई जाती है फिर जैसे-जैसे शुद्ध परणति बढ़ती जाती है, वैसे-वैसे ही पुण्य भाव छूटता जाता है । शुद्धस्वभाव रूप परिणत होनेपर शंका १५ - जब अभाव चतुष्टय वस्तु स्वरूप है, ता वे कार्य व कारण रूप क्यों नहीं माने जा सकते ? तदनुसार घातिया कर्मोंका ध्वंस केवलज्ञानको क्यों उत्पन्न नहीं करता ? तत्त्वार्थसूत्रमें चार घातियाके अभावसे केवलज्ञानकी प्राप्ति स्वीकार की गई है। समाधान - अभाव चतुष्टयको जिनागममें भावान्तर स्वभाव स्वीकार किया गया है, किन्तु घातिया कर्मोंके अभावसे केवलज्ञानकी प्राप्ति होती है, यह उपचार कथन है । कर्म पुद्गल हैं, उनके अभावसे चेतनको लाभ हो, ऐसा वस्तुका स्वभाव नहीं । हाँ अज्ञानके अभावसे पूर्णज्ञान प्रगट हुआ है, उस अज्ञानमें ज्ञानावरणी कर्म निमित्त थे, अतः निमित्तके अभाव में नैमित्तिक भावोंके अभावसे केवलज्ञान प्रकट हुआ है । पूर्वकी अज्ञान पर्यायका नाश, ज्ञान के पूर्ण विकास ये दोनों एक समय में हुए हैं । यथार्थ बात यह है कि ज्ञानकी परिणति जैसे-जैसे स्वभावमें स्थिर होती जाती है, तसे तसे ज्ञानका विकास होता हुआ वह पूर्णताको प्राप्त हुआ है । उसी समय अज्ञान भी क्रमशः नष्ट होकर पूर्ण विलयको प्राप्त हो जाता है । जैसे सूर्यका प्रकाश होनेपर अन्धकार भाग जाता है, अन्धकार स्वतः नहीं भागता है, उस समय कर्म भी नाशको प्राप्त हो जाता है । केवलज्ञान अपने पुरुषार्थसे उत्पन्न हुआ है; न कि कमकी कृपासे । शंका १६ – निश्चय और व्यवहार नयका स्वरूप क्या है ? व्यवहारनयका विषय असत्य है क्या ? असत्य है तो अभावात्मक है या मिथ्यारूप है ? समाधान – जैन शासन में दो नयोंसे वस्तु स्वरूपका निर्णय किया जाता है। उसमें वस्तुका त्रिकाल स्वभाव क्या है इसका निर्णय निश्चयसे होता है तथा गुणभेद या विविध अवस्थाओंका निर्णय व्यवहार नयसे होता है । अतः ज्ञान दोनों नयोंका करना अत्यन्त आवश्यक है, क्योंकि यदि निश्चयनयका ज्ञान नहीं होगा, तो व्यवहारनयकी विषयभूत शुद्धाशुद्ध पर्यायोंको ही अपना स्वरूप मानकर पर्यायबुद्धि जो कि अनादि कालसे लगी हुई है, उसीमें तन्मय होकर मिथ्यादृष्टि ही बना रहेगा और यदि व्यवहारनयकी विषयभूत अपनी वर्तमान पर्यायके अपराधका ज्ञान नहीं करेगा, तो फिर कभी अपराध दूर करनेका भी प्रयत्न नहीं करेगा । किन्तु व्यवहार नयकी विषयभूत वर्तमान पर्याय आत्माका असली स्वभाव नहीं है । एवं विकारका आश्रय करने से विकार नष्ट नहीं होता है, किन्तु विकार रहित आत्मस्वभावका श्रद्धान ज्ञान आचरण करनेसे विकार नष्ट होता है। अतः निश्चयनयका विषय त्रिकाली स्वभावको उपादेय कहा है। तथा व्यवहारका विषय गुणभेद या पर्यायभेद अनुभव अवस्थामें छूट जाता है, अतः व्यवहारनयको हेय कहा है। क्योंकि रागादि आत्माका स्वभाव नहीं है । अतः व्यवहार शान करने योग्य है, किन्तु आश्रय करने योग्य नहीं है। इसीसे उसे हेम कहा है । जहाँ भी निश्चय धर्म और व्यवहारधर्म इस प्रकार दो भेद किये हैं, वहाँ वीतरागताको निश्चयधर्म और उसके साथ चलने वाले शुभभावको व्यवहार धर्म कहा है। इनमें से यथार्थ धर्म तो वीतरागता ही है, सहचर होनेसे शुभरागको आरोपित धर्म कहा जाता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012004
Book TitleFulchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain, Kailashchandra Shastri
PublisherSiddhantacharya Pt Fulchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Varanasi
Publication Year1985
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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