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________________ ६५४ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ प्रतिशंका २. इन गाथाओंका भाव तो निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्धको बताता है कि जन्म-मरण कर्माधीन है, उसे कोई नहीं बदल सकता है। इससे पूर्व गाथा ३११ से ३२० तक कुदेवोंके प्रति भक्तिभावके प्रति अरुचि पैदा करनेके लिए लिखा है कि कोई देवी देवता न तो धन देता है और न उपकार, अपकार करता है । यदि ये धन देने लगें, तो फिर पुण्य क्यों किया जावे ? इनमें सबसे प्रथम यह कहा है कि सम्यग्दृष्टि तत्त्वोंका अनेकान्त रूपसे श्रद्धान करता है। इस विचारको दृढ़ करनेके लिए उक्त तीन गाथाएँ कही है । गाथा २१९ में कहा है-पदार्थ नानाशक्ति युक्त है, किन्तु वह उसी रूपमें उत्पन्न होता है, जिसके अनुकूल द्रव्य, क्षेत्रादि निमित्त कारण जैसे मिल जाते हैं । इसी प्रकार गाथा २२३ की टीकामें कहा है। यदि परणति नियत समयपर होती है, तो फिर कभी अविपाक निर्जरा नहीं हो सकती है, जिससे मोक्षका अभाव हो जायगा। इस नियतवादको पंचसंग्रह, गोम्मटसारमें मिथ्यात्व कहा है । तत्त्वार्थ सूत्र में बाह्य निमित्त कारण मिलनेपर अकाल मृत्यु बतलाई है। तथा अकालमें दिव्यध्वनि खिरना, अनियतकालमें निर्जरा होना, संसारी जीवकी अनियत गुणपर्याय, क्रम-अक्रम परिणमन, द्रव्यकर्मकी अनियत पर्याय आदिसे पता चलता है कि पर्याय अनियत भी होती है। कोई भी कार्य उपादान और निमित्तके बिना उत्पन्न नहीं होता है। स्वपर प्रत्यय पर्याय निमित्त कारणके व्यापारके अनुकूल होती है और निमित्तका व्यापार नियत हो, ऐसा एकान्त नहीं है । जैसे आम धूप, छाया आदिके निमित्तसे शीघ्र देरसे पकते हैं । केवलज्ञानमें भी पर्यायें अनियत और नियत रूपसे झलकती है। केवलज्ञान ज्ञापक है; कारक नहीं। इसी प्रकार क्रम-अक्रमके विषयमें एकान्त नहीं, अनेकान्त है। अमृतचन्द्राचार्यने भी कालनय, अकालनयका उल्लेख किया है । अतः पर्यायें क्रम और अक्रमसे दोनों तरहकी होती है। प्रतिशंका २ का समाधान-इसका निश्चय और व्यवहारसे समाधान करते हुए द्वितीय पक्षने काव्य अनुवाद गाथा ३२३ के भावको समझाते हुए लिखा है स्वामी कार्तिकेयने निश्चयसे ऐसा जो मानता है, यह कथन सिद्ध करता है जो यथार्थमें ऐसा मानता है वह निश्चयसे वस्तुका यथार्थ स्वरूप है और द्रव्यकी सब पर्यायें कहनेसे शुद्ध अथवा अशुद्ध पर्यायें परकृत नहीं, स्वकृत हैं, और वे सब नियतक्रमसे होती है । 'समयसार में कहा है जो ऐसा मानता है कि मैं किसीको सुखी-दुखी करता हूँ या जीवन मरण देता हूँ, वह अज्ञानी है । अतः अशुद्ध पर्याय भी अपने समयपर होती है। (१) निर्जरा, उत्कर्षण, अपकर्षण आदिके लिए यह सिद्धान्त है कि बन्धकालमें जो स्थितिबन्ध और अनुभागबन्ध होता है, उस कालमें ही उन कर्मोकी ऐसी योग्यता स्थापित हो जाती है, जिससे नियतकाल आनेपर नियत परिणामों तथा बाह्य नोकर्मोंका निमित्त कर उन-उन कर्मोका अपकर्षणादि रूप परिणमन होता है। ऐसा न माननेपर कर्मशास्त्रकी सारी व्यवस्था ही गड़बड़ा जायगी और उपशमकरण, निधत्तिकरण, निकाचितकरणकी व्यवस्था ही नहीं बन सकेगी। (२) निमित्त उपादानकी उपस्थितिमें कार्यकी उत्पत्ति होती है, किन्तु निमित्त उपादानका कुछ भी कार्य नहीं करता है । क्योंकि दो द्रव्योंकी एक परणति नहीं होती, यह सिद्धान्त है। तथा एक द्रव्यकी स्व रूप और पररूप परिणति होती हो, ऐसा भी नहीं है । क्योंकि कर्ता-कर्म-क्रिया भाव निश्चयसे एक द्रव्यमें ही घटित होता है । दो पदार्थोंमें कर्ता-कर्म-क्रियाका सम्बन्ध व्यवहारसे कहा जाता है; होता नहीं। (३) भगवान्की वाणी अकालमें भी खिरती है, इसका उत्तर जयधवला पृ० ७६ में कहा है । दिव्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012004
Book TitleFulchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain, Kailashchandra Shastri
PublisherSiddhantacharya Pt Fulchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Varanasi
Publication Year1985
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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