SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 692
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पंचम खण्ड : ६५३ रागमात्र व्यवहार धर्म नहीं है, किन्तु निश्चयके साथ देव, शास्त्र, गुरुका श्रद्धान, स्वाध्याय और व्रतपालनको व्यवहार रत्नत्रय कहा जाता है । शुभमें प्रवृत्ति और अशुभसे निवृत्ति यह व्यवहार चारित्र है । बृहद्द्रव्यसंग्रह, गाथा ४५ और पंचास्तिकाय गाथा १३६ मूलाचार गा० ७३-७४ पंचपरमेष्ठीकी भक्तिको शुभराग कहा है । व्यवहारका लक्षण है--जो जिस रूप न हो उसको उस रूप कहना व्यवहार है । जिसका आशय निकला कि वह वास्तवमें धर्म तो नहीं है, उपचारसे उसे धर्म कहा गया है। यदि निश्चय और व्यवहार दोनों ही धर्म हैं, तो फिर वे दो कहाँ रहे ? एक ही हुए। धर्मकी पद्धतिका कथन तो यह है-'शुभमें न मगन होय न शुद्धता विसरनी।' लक्ष्यमें आत्मप्राप्ति रूप धर्मको लेकर अशुभसे बचने के लिए शुभ क्रिया होती है। आत्माके अवलंबनसे संवर निर्जरा मोक्ष होता है और परावलम्बनसे आस्रव-बंध होता है। शुभाशुभ परिणामके निरोधको भावसंवर कहा है । पञ्चास्तिकाय आदि ग्रन्थोंके जितने भी प्रमाण दिये हैं, उन सबका आशय यही है। "बृहद्रव्यसंग्रह" गाथा १३ में कहा है-व्यवहारनयको साध्यभूत निश्चयनयका उपचरित हेतु स्वीकार न कर उसे परमार्थ मानता है, वह सम्यग्दृष्टि नहीं है। समयसार गाथा २७२में कहा है-उपचरित व्यवहारनयसे जो कुछ कहा जाता है, वस्तु वैसी न होनेसे यह निश्चयनयकी दृष्टिमें सर्वथा हेय है । प्रथम पक्षने “पुरुषार्थसिद्धयुपाय", "पञ्चास्तिकाय" और "छहढालाके जो प्रमाण उपस्थित किये हैं, वे सब इसी श्रेणीमें आते हैं। पद्मनदि पञ्चविंशतिका ७१/१६ का यह श्लोक महत्त्वपूर्ण है--सविकल्प अवस्थामें प्रमाण-नय-निक्षेप सब हैं। केवल निर्विकल्प अवस्थामें एक चेतन ही अनुभवमें आता है । यही आशय समयसार गाथा १२ का है। ___ जहाँ निश्चयनयका विषयभूत आत्मज्ञानका आश्रय नहीं है, वहाँ किसी भी प्रकारका व्यवहार ही नहीं है; क्योंकि 'मूलो नास्ति कुतोः शाखा ।' जब निश्चय नहीं, तो व्यवहार किसका नाम है ? अज्ञानी जीवको कोई नय होता ही नहीं है। प्रथम पक्षने निश्चयधर्मको लक्ष्य बताया है, किन्तु ऐसा नहीं है। वीतराग परणतिका नाम ही निश्चय धर्म है । लक्ष्यका नाम ही निश्चय नहीं है। प्रथम पक्षका यह लिखना उचित नहीं कि चौथे पाँचवें और छठवें गुणस्थानमें बाह्य पुरुषार्थ ही होता है, किन्तु इन गुणस्थानोंमें भी आत्मसाधनाके साथ बाह्य आचरण हेय बुद्धिसे चलता है । मूलाचारमें कहा है-बाह्य क्रिया करते हुए भी मुनिके जीवनमें निश्चय धर्म गौण नहीं हो सकता है । अधःकर्म और औद्देशिकके निमित्तोंके त्यागका प्रयोजन निमित्त-नैमित्तिकका ज्ञान कराना है । अर्थात् जब राग छूट जाता है तो रागके साधन भी छूटते चले जाते हैं। इस प्रकार व्यवहारनय निश्चयका साधक है, यह असद्भूत व्यवहार नयका कथन है। शंका ५-द्रव्योंमें होनेवाली सभी पर्यायें नियतक्रमसे होती हैं या अनियतक्रमसे भी? समाधान-द्रव्योंमें होनेवाली सभी पर्याय नियत क्रमसे ही होती हैं । स्वामी कार्तिकेयानुप्रेक्षा गाथा ३२१-२२-२३ में कहा है--जीवका जन्म अथवा मरण जिस देश, जिस काल, जिस विधिसे होना है-उसी प्रकार होकर रहता है, ऐसा जिनेन्द्र भगवान्ने जाना है। उसे बदलनेके लिए इन्द्र अहमिन्द्र और जिनेन्द्र भगवान् भी समर्थ नहीं हैं । इस प्रकार जो निश्चयसे सब द्रव्यों और उनकी पर्यायोंको जानता है, वह शुद्ध सम्यग्दृष्टि है, जो शंका करता है, वह कुदृष्टि है। . अतः इस आर्ष वाक्यसे यह सिद्ध होता है कि सभी द्रव्योंकी सभी पर्याय नियत क्रमसे ही होती हैं। इसी ग्रन्थमें गाथा २३०में कहा है कि पूर्व पर्याययुक्त द्रव्य उपादान कारण जब होता है तब उत्तर पर्याय कार्य रूप प्रगट होती हैं। तत्त्वार्थश्लोकवातिक अ० १ पृ० ७१में इसी प्रकार कहा है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012004
Book TitleFulchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain, Kailashchandra Shastri
PublisherSiddhantacharya Pt Fulchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Varanasi
Publication Year1985
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy