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________________ पंचम खण्ड :६४९ १५० पर स्वयं लिखा है-कि भव्य होते हुए भी कुछ जीव सिद्धत्व प्राप्त नहीं कर पाते हैं, उसका कारण तदनुकूल सामग्रीका न मिलना ही है। अतः योग्यता होते हुए भी बाह्य सामग्रीके अभावमें मुक्ति न मिलती है। मोतियाबिंद हो जानेसे आत्मा आंखोंसे नहीं देख पाती है। "तत्त्वार्थसूत्र" की टीकामें भी आपने पृ. २१८ पर स्वीकार किया है कि छात्र और अध्यापकके मिलनेपर ही ज्ञान प्राप्त होता है। उपादान हो और निमित्त न मिले तो कार्य नहीं होता है । तपकी साधनामें आवश्यक शरीर बलकी अपेक्षा होती है तथा बहिरंग संयमछेद काय चेष्टाको कहा गया है। तीन कर्मोकी स्थिति आयु कर्मके बराबर करनेके लिए बिना इच्छाके केवलीका समुद्घात होता है। यह शारीरिक समुद्घात संसार विच्छेदका कारण बनता है, अतः शरीरकी क्रियासे धर्म-अधर्म होता है। प्रतिशंका ३ का समाधान समयसार, गाथा १६७ में रागादि भावोंको ही बंधका कारण कहा है, रागरहित भाव बंधके कारण नहीं है। रत्नकरण्ड श्लोक ३ में रत्नत्रयको मुक्तिका कारण और मिथ्यात्वादिको ही संसारका कारण बतलाया है । सागारधर्मामृत अ०४ श्लोक २३ में कहा है कि यदि भाव ही बंध मोक्षके कारण न हो, तो जीवोंसे भरे इस लोकमें कहां विचरण करके मोक्ष प्राप्त कर सकता है अर्थात सूक्ष्म जीवोंकी हिंसा निरंतर होते रहनेसे मोक्ष कैसे प्राप्त कर सकते हैं ? "सर्वार्थसिद्धि" ग्रंथमें कहा गया है शुभ-परिणामके निमित्तसे शुभयोग और अशुभ परिणामके निमित्तसे अशुभयोग होता है । शरीरकी क्रिया शुभ-अशुभ नहीं होती, किन्तु शुभाशुभ परिणाम के निमित्तसे शुभाशुभयोग कहा जाता है। उत्तर पक्षने जो उदाहरण दिये है, उनसे उनकी मान्यता पुष्ट नहीं होती है। क्या बिना परिश्रमके विद्यार्थी विद्या सीख लेता है ? जब विद्यार्थी सफल हो जाता है, तब गुरु ने ज्ञान दिया-यह कहा जाता है । समुद्घात भी शरीरमात्र की क्रिया नहीं, अबुद्धिपूर्वक आत्म पुरुषार्थ से होता है। शंका नं० ३-जीवदयाको धर्म मानना मिथ्यात्व है क्या ? इसका समाधान करते हुए परमात्मप्रकाश अ. २ श्लोक ७१ में कहा है- शुभ परिणामसे पुण्य बंध, अशुभपरिणामसे पापबंध तथा शुभाशुभ भाव रहित वीतराग परिणामसे कर्मबंधन नहीं होता है। इसी प्रकार समयसार गाथा ६४ में भी कहा है । इसके पश्चात् पूर्व पक्षने प्रतिशंका उपस्थित की-कि जीवदया शुभ भाव है यह तो ठीक है, किन्तु उससे संवर, निर्जरा होती है। इसे भी स्वीकार कर लेना चाहिए, क्योंकि व्रत, समिति आदि को कार्तिकेयानप्रेक्षा, पद्मनंदि पंचविंशतिका, बोध पाहुड, धवला आदि ग्रंथमें भी संवरतत्त्व और धर्म कहा है। तथा धवला पु. १ पृ. ९ में अरहंत नमस्कारको असंख्यातगुणी निर्जराका कारण कहा है । तथा "भावसंग्रह" में पूजा व्रतादिको मोक्षका कारण कहा है। तथा पुण्यको मोक्षका कारण बताया है। 'परमात्मप्रकाश में इसे मोक्षका कारण कहा है अतः पुण्यबंध संसारका कारण कहना अनुचित है। प्रतिशंकाके समाधानमें उत्तर पक्षके २० प्रमाणोंका विश्लेषण करते हुए पुरुषार्थसिद्धयुपाय श्लोक २१२-२१३-२१४ का प्रमाण उपस्थित किया कि सम्यग्दर्शनादिसे निर्जरा होती है, और रागसे बंध होता है। समयसार गाथा १४० में भी कहा है कि रागसे बंध होता है, और वीतरागतासे निर्जरा होती है। अतः जीवदया राग रूप होने से पुण्य बंधका कारण है, उससे निर्जरा नहीं होती है। शुभरागका अन्तर्भाव कर्मचेतना में होता है, और यह कर्मचेतना सम्यग्दृष्टि धर्मात्माके होती नहीं। उसके सिर्फ ज्ञान चेतना होती है । अतः दयाभाव शुभराग रूप तो है, वीतराग धर्म नहीं है। प्रतिशंका ३-इस उत्तरके पश्चात पूर्व पक्ष ने पुनः अपनी प्रतिशंका रखते हुए कहा कि परमात्माप्रकाशमें शुभ परिणामको धर्म बतलाया है, उसे आप लोग स्वीकार क्यों नहीं करते ? आप आर्ष प्रमाणोंको ८२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012004
Book TitleFulchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain, Kailashchandra Shastri
PublisherSiddhantacharya Pt Fulchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Varanasi
Publication Year1985
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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