SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 687
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ६४८ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ भावक भाव्यका आशय है कि जब तक जीव मोहोदयमें एकत्वबद्धि करता रहता है, तब तक मोहोदय भावक औरआत्माका विकारी भाव भाव्य कहलाता है। यदि मोहोदय बलात् विकार करावे, तो जीव कभी भी मोहको नष्ट कर ही नहीं सकता है। यह भावक भाव्य भाव व्यवहार कथन है। इसी प्रकार ज्ञानावरण कर्म भी केवलज्ञान आदिके घातनेमें निमित्त मात्र है । रागादिको पुद्गल कहनेका आशय यह है कि वे जीवके स्वभाव भाव नहीं है, तथा विकारी भावोंमें ज्ञान न होनेसे उन्हें पदगल कहा है, न कि वे रूप, रस, गंध, स्पर्शवाले पुद्गल हैं और न कर्मकृत पुदगल हैं। "तत्त्वार्थसूत्र" और "पुरुषार्थसिद्धयुपाय" में उसे जीवकृत परिणाम भी कहा है । वहाँ जीवकी अपनी कमजोरीका दर्शन कराया है । नियतनय और अनियत नयका अर्थ है-सब अवस्थाओंमें व्याप्त रहनेवाला त्रिकाली अन्वयरूप द्रव्य स्वभाव नियतनय है और परिवर्तनशील पर्याय स्वभाव अनियत है तथा पूर्वपक्षने असद्भूत व्यवहारनयको उपचारित मानना अस्वीकृत किया है, उसे आगमके परिप्रेक्ष्यमें देखें, तो उपचारका प्रसिद्ध लक्षण है-एक वस्तुके धर्मको दूसरेमें आरोपित करना उपचार या व्यवहार कहा है । उपचारके बाद भी जो उपचार किया जाता है वह उपचरित असदभत व्यवहारनय है। जैसे-कुंभकारका कर्म घट कहना। कुंभकार अपने योग और उपयोगका तो कदाचित् कर्ता कहा जा सकता है, किन्तु वह घटरूप परिणमित न होनेसे घटका कर्ता तो उपचारसे ही कहा जाता है । शंका-२-जीवित शरीरकी क्रियासे धर्म-अधर्म होता है या नहीं। समाधान-शरीर पुद्गल द्रव्यको पर्याय है अतः पुद्गलकी क्रियासे आत्माका धर्म अधर्म नहीं होता है। छह ढालामें कहा भी है, 'देहजीवको एक गिने बहिरातम तत्त्व मुधा है।" जो शरीर और आत्माकी क्रियाको एक मानता है, वह तत्त्वज्ञान रहित मूर्ख बहिरात्मा है अर्थात् अज्ञानी जीव शरीरकी क्रियासे धर्म अधर्म या पुण्यपाप मानते हैं। धर्मात्मा जीव शरीरकी क्रियासे आत्माको धर्म-अधर्म नहीं मानते हैं। इसके पश्चात् पुनः प्रतिशंका उपस्थित की गई कि प्रतिशंका २-जीवित शरीरको सर्वथा जड़ मान लेनेसे किसीकी भी हिंसा करनेपर हिंसाका पाप नहीं लगना चाहिये तथा जीवित शरीर चलता-फिरता है, इष्ट स्थानपर पहुँचता है। पूजा, व्रत, शील, संयम, दान देना, तप करना, उपदेश देना आदि सब क्रियायें शरीरसे ही होती हैं। "कायवाङ्मन. कमयोगः-सूत्रके अनुसार शरीर की क्रियासे आस्रव होता है । "तत्त्वार्थसूत्र में अजीवाधिकरण आस्रव शरीराश्रित क्रियासे होता है। वज्रवृषभनाराचसंहननसे शुक्लध्यान होकर मुक्ति प्राप्त होती है । उससे सातवाँ नरक भी मिलता है । प्रतिशंका २ का समाधान समयसार, गाथा १९ में कहा गया है जो कर्म, नोकर्मको अपना मानता है, वह अज्ञानी है । प्रवचनसार, गाथा १६० में कहा गया है-मैं शरीर, वाणी और मन नहीं हूँ। "नयचक्र" में कहा गया है-शरीरको जीवका कहना विजातीय असद्भूत व्यवहारनय है। स्वयंभूस्तोत्र ५९ में कहा गया है-गुण-दोष की उत्पत्तिमें बाह्यवस्तु निमित्त मात्र है तथा सावधानी वर्तते हुए द्रव्य हिंसा होने पर भी हिंसाका पाप नहीं लगता है। अतः पुण्य-पाप, धर्म-अधर्म परिणामीके अनुसार ही होता है । इस पर पुनः प्रतिशंका की गई प्रतिशंका ३-हमारा मूल प्रश्न यह था कि धर्म-अधर्ममें शरीरकी क्रिया कारण है या नहीं ? इसका उत्तर न देकर मात्र शरीरको जड़ बतलाया है, वह तो सभी मानते हैं । पं० फूलचंद्र जी ने धवला पु. १ पृ. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012004
Book TitleFulchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain, Kailashchandra Shastri
PublisherSiddhantacharya Pt Fulchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Varanasi
Publication Year1985
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy