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________________ पंचम खण्ड : ६३७ भी कहते हैं तथा इसके द्वारा उत्कृष्ट विनय प्रकाशित होती है इसलिये इसे विनय कर्म भी कहते हैं । यहाँ विनयकी "विनीयते निराक्रियते" ऐसी व्युत्पत्ति करके इसका फल कर्मोकी उदय और उदीरणा आदि करके उनका नाश करना भी बतलाया गया है । तात्पर्य यह है कि कृतिकर्म जहाँ निर्जराका कारण है, वहाँ वह उत्कृष्ट पुण्य संचयमें हेतु है और विनय गुणका मूल है । इसलिए उसे प्रमाद रहित होकर साधुओं और गृहस्थोंको यथाविधि करना चाहिए। विचारणीय विषयमें पंडितजीने पूजाके आह्वान-स्थापन-सन्निधिकरणके विषयमें संकेत किया है । जैन परम्परामें स्थापना निक्षेपका बहुत महत्त्व है; इसमें सन्देह नहीं । पंडित प्रवर आशाधरजीने जिनाकारको प्रकट करने वाली मत्तिके न रहनेपर अक्षतादिमें भी स्थापना करनेका विधान किया है, किन्तु जहाँ साक्षात् जिनप्रतिमा विराजमान है, वहाँ क्या आह्वान आदि क्रियाका किया जाना आवश्यक है ? विसर्जन आकर पूजा स्वीकार करने वालेका किया जाता है, किन्तु जैन धर्मके अनुसार (न) कोई आता है और न पूजामें अर्पण किये भागको स्वीकारता है । इस स्थितिमें पूजाके अन्तमें विसर्जन करना क्या आवश्यक है ? आपने विसर्जन पाठके आह्वानं... मन्त्रहीनसे मिलते-जुलते ब्राह्मणधर्मके श्लोक देकर तुलनात्मक अध्ययनको बल दिया है । (१) सम्यग्दर्शन बोध-ते मंगलम् [मंगलाष्टक दूसरा श्लोक निर्दोष सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र यह पवित्र रत्नत्रय है । श्री सम्पन्न मक्ति नगरके स्वामी भगवान जिनदेवने इसे अपवर्ग देने वाला इस प्रकार जो यह तीन प्रकारका धर्म कहा गया है, वह तथा इसके साथ सक्ति सूधा, समस्त जिन प्रतिमा और लक्ष्मीका आधारभूत जिनालय मिलकर चार प्रकारका धर्म कहा गया, वह तुम्हारा मंगल करे । (:) दृष्टं जिनेन्द्र ""नूपुरनादरम्यम् [दृष्टाष्टक स्तोत्र ५वाँ श्लोक आज मैंने जो हिलती हुई सुन्दर मालाओंसे आकुल हुए भ्रमरोंके कारण ललित अलकोंकी शोभाको धारण कर रहा है और जो मधुर शब्द युक्त वाद्य और लयके साथ नृत्य करती हुई वारांगनाओंकी लीलासे हिलते हुए वलय और नूपुरके नादसे रमणीय प्रतीत होता है ऐसे जिनेन्द्र-भवनके दर्शन किए। (३) श्रीमज्जिनेन्द्र "मयाभ्यधायि [लघु अभिषेक पाठ १ला श्लोक] तीन लोकके ईश स्याद्वाद नीतिके नायक और अनन्त चतुष्टयके धनी श्रीसम्पन्न जिनेन्द्रदेवको नमस्कार करके मैंने मूल संघके अनुसार सम्यग्दृष्टि जीवोंके सुकृतको एक मात्र कारणभूत जिनेन्द्रदेवकी यह पूजा-विधि कही। (४) उदकचन्दन' "जिननाथमहं यजे (नित्यपूजा अर्घ-श्लोक) मैं प्रशस्त मंगलगानके (मंगल जिनेन्द्र स्तवनके) शब्दोंसे गुंजायमान जिनमन्दिरमें जिनेन्द्रदेवका जल, चन्दन, अक्षत, पुष्प, नैवेद्य, दीप, धूप, फल तथा अर्घसे पूजन करता हूँ। ५) प्रज्ञाप्रधाना" परमर्षयो नः (नित्यपूजा मुनि स्तवन ४ था श्लोक) प्रज्ञाश्रमण, प्रत्येक बुद्ध, अभिन्नदश पूर्वी, चतुर्दश पूर्वो, प्रकृष्टवादी और अष्टांग महानिमित्तके ज्ञाता मुनिवर हमारा कल्याण करें। (६) देवि श्री श्रुतदेवते""संपूजयामोऽधुना (देवशास्त्र गुरुपूजा ३रा श्लोक) हे देवि ! हे श्रुतदेवते ! हे भगवति !! तेरे चरण कमलोंमें भौंरेकी तरह मुझे स्नेह है। हे माता, मेरी प्रार्थना है कि तुम सदा मेरे चित्तमें बनी रहो । हे जिनमुखसे उत्पन्न जिनवाणी! तुम मेरो सदा रक्षा करो और मेरी ओर देखकर मुझपर प्रसन्न होओ । अब मैं आपकी पूजा करता हूँ। (७) बारह विह संजम""ते तरन्ति (देवशास्त्रगुरु पूजाकी जयमाला श्लोक (८वां) जो बारह प्रकारका संयम धारण करते हैं, चारों प्रकारकी विकथाओंका परित्याग करते हैं और जो बाईस परीषहोंको सहन करते हैं, वे मुनि संसार रूपी महासमुद्र को पार करते हैं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012004
Book TitleFulchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain, Kailashchandra Shastri
PublisherSiddhantacharya Pt Fulchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Varanasi
Publication Year1985
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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