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________________ ६३६ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ ज्ञानपीठ पूजाञ्जलि : एक अध्ययन श्री लक्ष्मीचन्द्र 'सरोज' जाबरा भारतीय ज्ञानपीठके संस्थापकोंकी यह भावना ज्ञानपीठ-पूजाञ्जलिके माध्यमसे प्रकट हई कि पूजा-ध्यान स्तोत्र-वाचन, सामायिक, आलोचना पाठ, आरती आदिको जिस परिपाटीने समाजकी धार्मिक भावनाको जागृत रखा और आध्यात्मिक शान्ति की ओर उन्मुख किया है, वह सुरक्षित रहे, उसका संवर्धन हो । ज्ञानपीठ पूजाञ्जलि द्वारा यह प्रयत्न विशेष रूपसे किया गया है कि शुद्धपाठ प्रस्तुत किया जावे और संस्कृत पूजाओंके हिन्दी अनुवाद द्वारा उनकी महत्ताको-उनके भावको बोधगम्य बनाया जावे। सामग्रीका वर्गीकरण दैनिक और नैमित्तिक आवश्यकताओंके आधार पर किया गया है जिसका सम्पादन पंडित फूलचन्द्र सिद्धान्तशास्त्रीने उत्तम रीतिसे किया है। पूजाञ्जलि निम्नलिखित सात विभागोंमें विभाजित है (१) सामान्य पूजा-पाठ (संस्कृत-हिन्दी ), (२) पर्व पूजादि (संस्कृत-हिन्दी), (३) तीर्थकर पूजा, (५) नैमित्तिक पूजा पाठ, (५) अध्याय पाठ, (६) स्तोत्रादि (संस्कृत हिन्दी) (७) आरती जापादि । पूजाञ्जलि' में संग्रहीत संस्कृत पूजाओंका संकल न बाबू छोटेलालजी कलकत्ताने किया और उनका सम्पादन आ० ने० उपाध्येने किया । डॉ० लालबहादुर शास्त्रीने कतिपय संस्कृत पूजाओंका अनुवाद किया था उससे भी यथोचित यथासम्भव सहायता ली गई। शेष सामग्रीका संकलन ज्ञानपीठके कार्यालयमें किया गया। इन पजाओंका हिन्दी अनुवाद ललित तथा मधुर भाषामें मूलगामी भावानुसार पं० फूलचन्द्र सिद्धान्तशास्त्रीने किया। संस्कृत पूजाओंके साथ होनेसे संस्कृत भाषाका, पूजाके भावका महत्त्व सुस्पष्ट हुआ है । प्राचीन जिनवाणी संग्रहोंमें जहाँ बड़ा टाइप चित्र थे वहाँ कागजी कंजूसीके कारण गद्य-पद्य भेद नहीं था। पूजाञ्जलि इसकी अपवाद है सुन्दर सम्पादन-प्रकाशन है। ___आलोचना पाठके रचयिता जौहरी लाल और कल्याण मन्दिर स्तोत्रके रचयिता कुमुदचन्द्र लिखना समुचित लगा । कुछ ग्रन्थोंमें भूधरदास और सिद्धसेन दिवाकर लिखा गया अनुचित ही लगा। सम्भवतः सर्वप्रथम पूजाञ्जलिमें ही पूजाकी महत्ता, मूलस्रोत और काल दोषज विकृतिका, प्राचीनअर्वाचीन पूजाका विधिवत् साधार विश्लेषण-विवेचन किया गया। पंडित प्रवर फूलचन्द्रजी सिद्धान्तशास्त्रीने जो प्रास्ताविक वक्तव्य प्रथम संस्करणमें लिखा था, वह अठारह पृष्ठोंकी परिधिमें पठनीय-मननीय-चिन्तनीय है । 'कृतिकर्म-साधु और गृहस्थ दोनोंके कार्योंमें मुख्य आवश्यक है। यद्यपि साधु सांसारिक प्रयोजनोंसे मुक्त हो जाता है, फिर भी उसका चित्त भूलकर भी लौकिक समृद्धि, यश और अपनी पूजा आदिकी ओर आकृष्ट न हो और गमनागमन, आहार-ग्रहण आदि प्रवृत्ति करते समय लगे हुए दोषोंका परिमार्जन होता रहे, इसलिए साधु कृतिकर्मको स्वीकार करता है। गृहस्थकी जीवनचर्या ही ऐसी होती है कि जिसके कारण उसकी प्रवृत्ति निरन्तर सदोष बनी रहती है, इसलिए उसे भी कृतिकर्म करनेका उपदेश दिया जाता है। कृतिकर्मके मूलाचारमें चार पर्यायवाची नाम दिए हैं-कृतिकर्म, चितिकर्म, पूजाकर्म और विनयकर्म । इनकी व्याख्या करते हुए भूमि कामें स्पष्ट किया गया है कि जिस अक्षरोच्चार रूप वाचनिक क्रियाके परिणामोंकी विशुद्धि रूप मानसिक क्रियाके और नमस्कारादिरूप कायिक क्रियाके करनेसे ज्ञानावरणादि आठ प्रकारके कर्मोंका 'कृत्यते छिद्यते' छेद होता है उसे कृति कर्म कहते है। यह पुण्य संचयका कारण है इसलिए इसे चितिकर्म कहते हैं । इसमें चौबीस तीर्थंकरों और पाँच परमेष्ठी आदिकी पूजा की जाती है, इसलिए इसे पूजा कम Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012004
Book TitleFulchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain, Kailashchandra Shastri
PublisherSiddhantacharya Pt Fulchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Varanasi
Publication Year1985
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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