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________________ चतुर्थ खण्ड : ६०६ अधिकारियोंके रुखके कारण परीक्षा कालमें जो अव्यवस्था बनी उसकी भरपाई करनेके अभिप्रायवश गर्मियोंके अवकाशके बाद पूज्य पं० बंशीधरजी न्यायालंकार और स्व० पूज्य पं. देवकीनन्दनजी सिद्धान्तशास्त्री हम सब छात्रोंकी परीक्षा लेनेके लिए साढू मल बुलाये गये। इस वर्ष मैंने धर्मशास्त्रमें जीवकाण्डकी परीक्षा दी थी। इसलिए मुझसे अन्य प्रश्नोंके साथ यह पूछा गया कि जीवकाण्ड इस नाममें 'काण्ड' शब्द लगानेका क्या मतलब है ? मैने कहा-'काण्ड' पोर (पर्व) को कहते हैं । आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्तीने जिस महाशास्त्रकी रचना की है उसका यह एक हिस्सा है, इसीलिए 'जीवकांड' इस नाममें 'काण्ड' शब्द जोड़ा गया है। मेरा उत्तर सही था या गलत, यह विशेष तो मैं उस समय नहीं समझता था, किन्तु मेरे उत्तर जीवनके निर्माणमें यह हेतु बना इसमें सन्देह नहीं। मेरे मोरेना पहुँचनेका यही कारण बना। रात्रिमें मैं दोनों विद्वानोंसे मिला । स्व० पूज्य पं० देवकीनन्दनजी बोले-इसमें सन्देह नहीं कि तुम्हारे गुरु श्री पं० घनश्यामदासजी व्युत्पन्न और कुशल अध्यापक हैं। किन्तु यहाँ तुम्हारा चतुर्मुखी विकास नहीं हो सकता । तुम प्रत्युत्पन्नमति मालूम देते हो। मोरेना विद्यालयका दरवाजा तुम्हारे लिए खुला हुआ है । सूरा क्या चाहता है- दो आँखें। किसी प्रकार १ माहके भीतर मैं मोरेना पहुँच गया। वहाँ कुछ दिन रहा, पर चित्त न लगनेसे भाग निकला और पुनः सादमल पहुँचा। तब तक साढूमल पाठशालाका नकशा ही बदल गया था। स्व० पूज्य पं० घनश्यामदासजी खेदखिन्न होकर साढ़मल पाठशाला छोड़ चुके थे। फिर भी इस पाठशालाके संस्थापक उदात्तमना श्रेष्ठिवर्य लक्ष्मीचन्दजीकी बीमारीके कारण मैं वहाँ रुक गया। एक दिन सेठजीने मुझे देख लिया। बड़े नाराज हुए और तत्काल प्रबन्ध कराकर मेरी इच्छाके विरुद्ध मुझे पुनः मोरेनाके लिए रवाना कर दिया । लाचार मैं मोरेना विद्यालयका स्थायी स्नातक बन गया। अभी तक मैं पूज्य गुरु गोपालदासजीके विषयमें कुछ नहीं जानता था इतना ही मालूम हुआ था कि वे बहुत बड़े विद्वान् थे और उन्होंने ही इस संस्थाकी स्थापना की है । एक दिन पर्यटनके समय स्व० पूज्य पं० देवकीनन्दनजीने गुरुजीके विषयमें एक संस्मरण सुनाया । बोले-कुछ वर्ष पूर्व बादमें परास्त करनेके अभिप्रायसे गुरुजीके सन्निकट एक विद्वान् पहुँचा । बोला-मैं आपसे वाद करना चाहता हूँ, आप संस्कृत भाषा जानते हैं क्या ? सावधान होकर गुरुजी बोले-अपना पक्ष उपस्थित कीजिए, अन्य बातोंसे आपको क्या मतलब ? अपना पक्ष रखते हुए वह विद्वान् बोला 'ईश्वर जगत्का कर्ता है, समर्थ होनेसे, घटनिर्माणमें निपुण कुम्भकारके समान। इससे जगत्कर्ताके रूपमें ईश्वरका अस्तित्व सिद्ध होता है।' गुरुजी यह सुनकर थोड़े मुस्कराये। धीरेसे उत्तर देते हए बोले'ईश्वर जगत्का कर्ता नहीं है, व्यापक होनेसे, आकाशके समान । अभी वादकी एक ही कोटि चली थी कि 'ईश्वर जगत्का कर्ता नहीं है, व्यापक होनेसे, आकाशके समान'। यह बुबुदाता हुआ वह चुप हो गया। इस अनुमान वाक्यका कैसे खण्डन किया जाय यह उसकी समझमें कुछ भी नहीं आया । प्रणत होकर वह गुरुजीकी अनुनय करने लगा । गुरुजीने उसे सान्त्वना दी है। मेरा यह संस्मरण सनना था कि मेरी गरुजीके प्रति श्रद्धा जाग उठी। खेद-खिन्न होकर मैं अपने मनमें विचार करने लगा कि मैं कितना मन्दभाग्य हूँ कि मुझे ऐसे महापुरुषके दर्शन करनेका सौभाग्य ही प्राप्त न । मैंने कार्यालयमें उनका चित्र तो देखा ही था। मनमें आया कि जब एकलव्यने मिट्रोके भनेको द्रोणाचार्य मानकर धनुर्विद्यामें अर्जुनके समान निपुणता प्राप्त की तो क्या मैं उनके चित्रका प्रतिदिन दर्शन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012004
Book TitleFulchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain, Kailashchandra Shastri
PublisherSiddhantacharya Pt Fulchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Varanasi
Publication Year1985
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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