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________________ फलटणके बीसा हुंबड पंचोंके नाम पत्र श्री धर्मपरायण, वात्सल्यगुणधारक सर्वोपमालायक सकल सुखदायक बीसा हुंबड पंच फलटण सेठ हीरालाल मोतीलाल गांधीकी सेवामें पं० फूलचंद दरयावलाल शास्त्रीका सविनय जयजिनेंद्र | सत्य और अहिंसा ये दोनों जैन धर्मके प्राण हैं, इस तत्व को सामने रखकर जब विचार किया जाता है। तो यह लिखने में थोड़ा भी संकोच नहीं होता है कि जैन समाज अपने इन प्राणोंको खो बैठा है । किसी भी गाँवको लीजिये वहाँपर आपका विद्वेष और परस्परके कलहकी भावना ही जागृत दिखाई देगी । ऐसा क्यों होता है इसके कारणोंका योग्य विचार किया जावे तो कितनी ही ऐसी बातें बताई जा सकती हैं । जिनका स्वरूप अत्यंत विकृत है । यहाँपर मेरा उन सब कारणोंके दिग्दर्शन करानेका प्रयोजन नहीं है । आपकी सेवामें जिसलिये यह पत्र लिख रहा हूँ विश्वास है आप अब भी इसका सदुपयोग करेंगे । मैं कोई उपदेष्टा अथवा धर्माधिकारी नहीं हूँ किन्तु आपका एक तुच्छ सेवक हूँ बस इसी भावनाको लेकर मैं आपके हृदयका परिवर्तन करना चाहता हूँ । अपनी समाजने अनन्त दोष किये जिनके परिणामस्वरूप जैन समाज सतत नीच नीचे जा रही है । क्या इस लोकशाही के जमाने में भी वह अपनी इस भूलकी ओर दुर्लक्ष्य करके अपने निद्य पूर्व पदपर ही खड़ी रहेगी । समाज कल्याण के लिये नियम या बन्धन होते हैं, उनके लिये समाज नहीं होती है, यह बात अब भी यदि समाजके नेता समझ लें तो अब भी शांतिका साम्राज्य दूर नहीं है, ऐसी मेरी धारणा है । जिनको अधर्मी समझा जाता है उन समाजोंके कुछ उदाहरण यदि अपने सामने रक्खे जावें तो अब भी आँखें खुल सकती हैं । ऐसे उदाहरणोंमें पारसी बोहरा आदि जातियों के संगठनों के नियम समझने के लिये पर्याप्त हैं । इन सब बातों से मैं आपके सामने यही निवेदन करना चाहता हूँ कि आप स्वयं अन्तरदृष्टि होकर विचार करें तो आपको अपनी अक्षम्य भुल उसी समय समझमें आ जावेगी। हो सकता है कि आप मेरे इस निवेदनको तुच्छताकी नजर से देखेंगे परन्तु विश्वास रखिये कि इससे आपको ही और अधिक अड़चन में पड़ना होगा । संगठन रखिये परन्तु संगठनका दुरुपयोग आपकी शक्तिको नष्ट भ्रष्ट कर रहा है इस ओर तो आपकी दृष्टि नहीं जाती है । मेरी समझसे तो आपकी समाजमें इतना साहस होना चाहिये कि जिन नियमोंके आग्रहसे समाजमें फूटका विष बोया जाता हो उन नियमोंको ही आप उदार अंतःकरणसे तिलांजलि देकर सबके सब संगठित होकर एक भूमिका पर खड़े हो जावें । और कितने दिन आप इस तरह अपनी समाजमें यह विरोधाग्नि देखते रहेंगे । एकबार आप अपने शासनके दुरुपयोगको भूलनेका प्रयत्न कीजिये कि आपको आपकी समाजके संगठनके अनन्त मार्ग दिखाई देंगे । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012004
Book TitleFulchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain, Kailashchandra Shastri
PublisherSiddhantacharya Pt Fulchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Varanasi
Publication Year1985
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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