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________________ ५६८ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन ग्रन्थ और लोकसत्ताका है अनेक देशोंकी सरकारोंने परिस्थिति ही ऐसी निर्माण कर रक्खी है जिससे उनका दूसरे अशक्त देशोंपर हमला किये बिना और उनको अपने काबूमें लाये बिना काम ही नहीं चलता है। यह स्थिति केवल प्रत्येक सरकारकी ही है यह बात नहीं किन्तु जितने भी पूंजीपति हैं वे भी उसी मार्गका अनुसरण कर रहे हैं। उत्पादनशक्ति मजदूरोंके हाथमें होते हुए भी सम्पत्तिके भोक्ता मात्र ये पूंजीपति है । कभी-कभी ये अपने इस दोषके छिपानेके लिए दानकी बड़ी-बड़ी रकमें भी निकालते हैं, फिर भी उनसे बहुजन समाजका जितना अधिक फायदा होना चाहिए वह कभी भी सम्भव नहीं है। परन्तु इस पद्धतिसे भी गरीबोंके कैवारी आपको कितने पूंजीपति मिलेंगे इसका यदि सरासर विचार किया जावे तो सौमेंसे एक इस श्रेणीमें आ सकेगा या नहीं इसमें भी संदेह है । एकको रहने के लिए सुन्दर मकान, आराम और सूख भोगनेके लिए दूसरी सामग्रियाँ, पहिननेके लिए रेशमी कपड़े और पर्यटनके लिए मोटर आदि साधन उपस्थित है तो दूसरेको अपना शरीर ढांकनेके लिए वस्त्रका एक टुकड़ा और पेट भर अन्न भी नहीं मिलता है । परन्तु इन सब साधनोंके उत्पादक कौन यदि यह प्रश्न किया जावे तो यह कोई भी कह सकता है कि इनके कर्ता वे जिन्हें अपना जीवन रोते हुए बिता देना पड़ता है। पूर्वऋषियोंने आमदनीका विभाग करते हुए उसका एक चतुर्थांश धर्ममें खर्च करनेके लिए कहा है । वह भी दिखाऊ न होकर जिससे अनन्त अनाथ प्राणियोंका उपकार हो ऐसे कामोंमें खर्च होना चाहिए । किसी भी रूपमें आज जो कुछ भी पूंजीपति धर्ममें खर्च कर रहे हैं वह अनेक मार्गोंसे संग्रह की हुई संपत्तिका शतांश । भी नहीं होगा यह उनकी आमदनी और खर्चके अनुपातसे सहज ही समझमें आ सकता है। बहुतसे तो ऐसे उदाहरण मिलेंगे कि धर्मादायके नामसे ये पूँजीपति गरीबोंसे एक एक पैसा इकट्ठा करते है । परन्तु वह उनके वैभव बढ़ानेमें सहायक होता है। या उस संग्रहकी हुई द्रव्यका वे अपने नामसे विनियोग करते हैं। बहुतसे भाई भी इस द्रव्यके द्वारा ही तीर्थाटन आदि करके पुण्य संचय करना चाहते हैं । यह दोष सबके लिये लागू है यह बात नहीं परन्तु अधिकांश आपको ऐसे उदाहरण मिलेंगे। इधर पसेकी कीमत बढ़ जानेके कारण गरीबोंको अपनी गरीबीका अधिक अनुभव होने लगा है। उन्हें अपनी प्रतिदिनकी साधारणसे साधारण आवश्यकताओंकी पूर्ति करना कठिन होता जाता है । जो माल गरीब तैयार करते थे। वह सब यंत्रोंसे तैयार होकर इन पूँजीपतियों के द्वारा विदेशोंसे लाकर बाजार भरे जाने लगे हैं। इसलिए आज गरीबोंको पूंजीपतियोंसे टक्कर लेनेकी आवश्यकता प्रतीत होने लगी है। एक दिन वह था कि मजूर स्वयं सब तरहकी आवश्यकताओंके अनुसार कच्चे और पक्के मालके उत्पादक थे और पूंजीपति उसका विनियोग करनेवाले थे अतएव मजूर और श्रीमंतोंमें एक दूसरेको गजरके अनुसार कार्यभाग होता था। प्रत्येकको दूसरेके अस्तित्वको आवश्यकता प्रतीत होती थी। परन्तु आजकी परिस्थितिमें श्रीमंत मजूरोंका वही काम यंत्रोंसे करने लगे । थोडं मजूरोंसे अधिक काम होने लगा। अतएव स्वभावतः विरुद्ध दो शक्तियाँ निर्माण होने लगी एक दूसरेको एक दूसरेसे टक्कर देनेकी आवश्यकता प्रतीत होने लगी। श्रीमतीका अर्थ शोषणका काम बराबर चालू है । इधर गरीब उसके लिये दिन दिन मुहताज होते जाते हैं। आज श्रीमंत मजरोंका महत्व भल गये । उन्हें मजूरों के स्थानमें पैसेका महत्व अधिक दिखने लगा। वे मनुष्यकी अपेक्षा पैसेकी अधिक कीमत करने लगे। प्रत्येक सरकार भो इन श्रीमंतके हाथकी कठपुतली होने के कारण उसे भी उन्हीं की चिंता है। इस तरह यदि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012004
Book TitleFulchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain, Kailashchandra Shastri
PublisherSiddhantacharya Pt Fulchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Varanasi
Publication Year1985
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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