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________________ आजका प्रश्न इस बीसवीं शताब्दीमें किसी भी देशमें जितनी अधिक उत्क्रांति दिखाई देती है संभव है इस उत्क्रांतिका इतना अधिक व्यापकरूप पहिले कभी भी नहीं हुआ होगा। यह ठीक है कि पहिले भी उत्क्रांतियाँ और संघर्ष होते थे परन्तु उन सबका उद्देश्य कुछ और ही था। एक काल ऐसा था जब एक जाति दूसरी जातिपर अपनी धार्मिक भावनाओं के प्रचार करनेके लिए अतिक्रमण करती थी । कहीं कहींपर इन अतिक्रमणोंका कारण साम्राज्यपिपासा भी रहा करती थी। यह सब होते हुए उनका परिणाम व्यापक और सुदूर प्रदेश तक नहीं होता था । परन्तु आजकी परिस्थिति कुछ निराली है। आजकी सभ्यताने हमें रेल, तार, हवाई जहाज आदि सब कुछ दिये, पहिलेकी दास्यपद्धतिमें कुछ परिवर्तन भी दिखाई देता है । प्रत्येक जाति और देश स्वतन्त्र होना चाहिए यह भावना भी जागृत हो उठी है। प्रयत्न भी उसी दिशामें चालू हैं । फिर भी जो देश जितना अधिक स्वतन्त्रताकी धडपड करता है वह उतना ही अधिक दास्यताके बन्धनोंमें बँधता जा रहा है । जो देश आज हमें स्वतन्त्र दिखाई देते हैं वे और कितने दिन अपनी स्वतंत्रताको स्थिर रख सकेंगे इसमें आज सन्देह उत्पन्न होने लगा है । वे बलाढ्य राष्ट्र जिनकी शक्तियाँ दूसरे देशोंके भवितव्यका भी निश्चय करती हैं यही खेल उनको और कबतक खेलनेके लिए मिल सकेगा इसमें आज सन्देह उत्पन्न होने लगा है । जहाँ देखो वहीं संशयका वातावरण फैला हुआ है। राज्यकारभारकी अन्तिम दुहेरी नीतिका सर्वत्र उपयोग होने लगा है । किसी भी राष्ट्रका दूसरे देशपर विश्वास नहीं रहा। एक दूसरे देशोंके परस्पर तह भी होते हैं परन्तु वे शान्तिके तह न होकर अपने चारों ओर फैले हुए दूषित वातावरणके विस्फोट मात्र हैं। परिणाम भी उनका जैसा होना चाहिये वह न होकर उलटा ही होता है। परस्पर विश्वास और प्रेमको उत्पन्न करनेके लिए यूरोपखंडमें राष्ट्रसंघ इस संस्थाका निर्माण हुआ। अमेरिकाको छोड़कर प्रायः सभी बलाढ्य देशोंने उसमें भाग लिया परंतु उससे रक्षाका प्रश्न हल न हो सका। एक दो जगह राष्ट्रसंघको सफलता नहीं मिली होगी यह बात नहीं परन्तु उसका कारण राष्ट्रसंघकी संघठित शक्ति नहीं कही जा सकती है । यदि सफलता राष्ट्रसंघकी संघठित शक्तिका परिणाम कहा जाये तो जापानके मंचूरिया और इटलीने अवसीनियाको अपने पोलादी पंजोंमें जकड़ते समय राष्ट्रसंघ कहाँ गया था। मजा तो यह है कि इटली अवसीनियोंके ऊपर ताण करते समय भी वह राष्ट्रसंघका सदस्य ही बना रहा। राष्ट्र संघ में इटलीकी सदस्यता नष्ट करनेकी भी सामर्थ्य उत्पन्न न हो सकी । आज स्पेनमें अंतःकलह होते हुए भी जर्मनी और इटली स्पष्ट रूपसे स्पेन सहकारके विरुद्ध सहायता पहुँचा रहा है फिर भी उन्हें तटस्थ कमेटीमें स्थान प्राप्त है। इसीसे पता चल जाता है कि आजकी राजनीति क्या है । आज प्रत्येक देश जो इतनी अधिक उलझनोंमें पड़ता जा रहा है इसका क्या कारण है । क्या सभी देशोंको केवल एक साम्राज्यकी ही इच्छा है या इस साम्राज्यकी वृद्धिमें उनका अंतस्थ कोई दूसरा हेतु है । जिन्होंने आजकी परिस्थितिका सूक्ष्मतासे अध्ययन किया होगा उन्हें यह समझने में कुछ भी देरी नहीं लगेगी कि इस समय तो कमसे कम कोई भी राष्ट्र साम्राज्य लिप्साकी अपेक्षा अपने देशके आर्थिक प्रश्नको हल करनेके लिए अधिक चिंतातुर है। साम्राज्य वृद्धि केवल वैभवके लिए न होकर अपने गरजोंके दूर करनेका वह एक साधन होकर बैठा है। अमुक देश कमजोर है, उसके ऊपर परचक्रका भय है, वह अपने पैरों खड़े होनेकी सामर्थ्य नहीं रखता है यह सब भूलभुलया है । सच पूछा जावे तो आजका झगड़ा पूँजीवाद Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012004
Book TitleFulchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain, Kailashchandra Shastri
PublisherSiddhantacharya Pt Fulchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Varanasi
Publication Year1985
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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