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________________ ५६० : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ फिर भी श्वेताम्बर परम्परामें अपने ही आगमको दुर्लक्ष्य करके द्रव्य स्त्रीका मोक्षलाभ करना किस प्रकार स्वीकार किया है और वह उनके ही आगमके अनुसार कैसे नहीं बनता, आगे इस विषयपर विस्तारसे विचार किया जाता है। इस अवसर्पिणी कालमें जो २४ तीर्थकर हुए हैं उनमें १९वें तीर्थंकरका नाम मल्लिनाथ है । किन्तु मल्लिनाथ तीर्थकर मल्लिबाई (स्त्री) कैसे मान लिए गये इस विषयमें उनके यहाँ लिखा है कि जब ये महाबलके भवमें थे तब इन्होंने इस कारणसे स्त्री नाम गोत्र कर्मकी रचना की थी अर्थात् स्त्री नाम गोत्र कर्मका बन्ध किया था । वह उद्धरण इस प्रकार है तते णं से महब्बले अणगारे इमेणं कारणेणं इत्थिणाम गोयं कम्मं निव्वत्तेसु । अभिधानराजेन्द्रकोष भाग० ६ महब्बल शब्द। अब सवाल यह है कि जब महाबल अनगार थे अर्थात् ६३ ७वं गुणस्थानको प्राप्त थे ऐसी अवस्था में उनके स्त्री नाम गोत्र कर्मका बन्ध कैसे हो सकता है, क्योंकि यहाँ जिसे स्त्री नाम गोत्र कर्म कहा गया है वह औदारिक शरीर आंगोपांग नामकर्मका एक भेद है और मनुष्यगतिमें औदारिक शरीर आंगोपांग नाम कर्मका बन्ध दूसरे गुणस्थान तक ही होता है। ऐसा अवस्थामें श्वेताम्बरोंके कर्मशास्त्रके अनुसार भी ६३ ७वें गुणस्थानवर्ती महाबलके औदारिक शरीर स्त्री आंगोपांग नाम कर्मका बन्ध कैसे हो सकता है, अर्थात् नहीं हो सकता है। यदि कहा जाय कि उस समय वे मिथ्यादृष्टि अनगार थे तो यह कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि जो तीर्थकर प्रकृतिका बन्ध करने वाला होता है वह नियमसे कमसे कम सम्यग्दष्टि तो होता ही है ऐसा कर्म शास्त्रका नियम है, जिसे दोनों परम्पराएँ स्वीकार करती हैं। यदि कहा जाय कि जो मनुष्य नरकायुका बन्ध करनेके बाद सम्यग्दृष्टि होकर तीर्थंकर प्रकृतिका बन्ध करता है वह मरण कर यथायोग्य नरकमें जानेके पूर्व अन्तम हर्तके लिये अन्तमें मिथ्यादष्टि हो जाता है तो यह कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि महाबलके जीवने नरकायुका बन्ध न करके देवायुका ही बन्ध किया था। इसलिये वे स्त्री नाम गोत्र कर्मका बन्ध करते समय मिथ्यादृष्टि हो गये थे यह कहना आगमके विरुद्ध है। - इसी प्रकार चर्णिकार और मलयगिरिका यह कहना नहीं बनता कि सम्यक् दष्टि जीव स्त्रियों और नपुंसकोंमें उत्पन्न नहीं होते यथा मणुस्सेसु सम्मद्दिट्टी इत्थीनपुंसकेसु न । उव्वज्जइ त्ति-गाचुर्यवचनम् कादाचित्काद् भवति ॥ __ सि० चू० पृ० ४३ । तिर्यग-मनुष्येषु स्त्रीवेद-नपुंसकवेदिषु, मध्येऽविरतसम्यग्दृष्टेरुत्पादाभावात् । एतच्च प्राचुर्यमाश्रित्योक्तम्, तेनमल्लिस्वामिन्यादिभिर्न व्यभिचारः ?–सपृ० टी० पृ. २१७ । इस प्रकार इतने विचारसे यह तो निश्चित हो जाता है कि अनगार सम्यग्दृष्टि अवस्थामें महाबलके स्त्री नामगोत्र कर्मका बन्ध होना तो सम्भव नहीं है । फिर भी यदि ऐसा मान भी लिया जाय कि महाबलके अनगार हो जानेपर भी जब तक उनके सम्यग्दृष्टि होकर तीर्थकर प्रकृतिका बन्ध नहीं हुआ था तब उसके पहले वे मिथ्यादृष्टि थे, इसलिये उनके दोनों बातें बन जाती है मिथ्यादष्टि अवस्थामें स्त्री नाम गोत्र कर्मका बन्ध भी बन जाता है और बादमें सम्यग्दृष्टि होनेपर तीर्थकर प्रकृतिका बन्ध भी बन जाता है। और ऐसा मानने में किसी भी आगमसे बाधा भी नहीं आती। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012004
Book TitleFulchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain, Kailashchandra Shastri
PublisherSiddhantacharya Pt Fulchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Varanasi
Publication Year1985
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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