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________________ महिला मुक्ति गमनकी पात्र नहीं दिगम्बरोंसे श्वेताम्बरोंमें मतभेदके मुख्य विषय तीन हैं । (१) सवस्त्र सिद्धि । श्वेताम्बर मानते हैं कि बुद्धिपूर्वक वस्त्रके स्वीकार करनेपर भी मुक्तिलाभ करनेमें उससे कोई बाधा नहीं आती । जब कि वस्तु स्थिति यह है कि स्वावलम्बनके बिना जीवका परसे मुक्ति प्राप्त करना असम्भव है, इसलिए बुद्धिपूर्वक स्वीकार किये गये वस्त्रका बुद्धिपूर्वक त्याग होना ही चाहिये । इसलिए जैसे घर, जमीन, स्त्री, पुत्र आदिका बुद्धिपूर्वक त्याग किया जाता है वैसे ही वस्त्रका भी बुद्धिपूर्वक त्याग होना चाहिए । यह मुक्तिका मार्ग है जिसे दिगम्बर परम्पराने सदासे स्वीकार किया है। (२) केवली कवलाहार । श्वेता बर मानते हैं कि भूख-प्यासकी बाधा केवलीको भी होती है, इसलिए केवली भगवान् हम-आपके समान भोजन करते हैं और पानी पीते हैं। किन्तु दिगम्बर परम्परा उनकी इस मान्यताको स्वीकार नहीं करती। इसके कारण कई है । (क) असातावेदनीयकी उदीरणा छठे गुणस्थान तक ही होती है । और असाता वेदनीयकी उदीरणाके बिना भूख-प्यासकी बाधा हो नहीं सकती, इसलिए केवली भगवान् कवलाहार ग्रहण नहीं करते । (ख) असातावेदनीय अशुभ प्रकृति है, इसका बन्ध छठे गुणस्थान तक ही होता है. आगे इसका बन्ध नहीं होता। यद्यपि असातावेदनीयका उदय १४वें गुणस्थान तक होता है । पर सम्यक्त्वके सन्मुख हुए जीवके क्षयोपशम लब्धिके प्रथम समयसे ही इसका अनुभाग घटते-घटते १३वें गुणस्थानके प्रथम समयमें जरी हुई रस्सीके समान अनुभाग इतना कम शेष बचता है कि वह अपना कार्य करने में असमर्थ रहता है। इसलिए भी केवली भगवान्के कवलाहारको कल्पना करना असम्भव है । (ग) क्षपकश्रेणिपर आरूढ़ हुए जीवके १०वें गुणस्थानके अन्तिम समयमें मोहनीय कर्मका समूल नाश हो जाता है । तथा ज्ञानावरणीय आदि कर्मोंका बन्ध भी इसी गुणस्थान तक होता है। अकेला सातावेदनीय कर्म शेष रहता है जिसका बन्ध १३वें गुणस्थान तक होता है। परन्तु कषायके बिना उसका बन्ध एक समयकी स्थिति वाला होता है । अतः इसका नाम सातावेदनीय है, अतः उसे जो अनुभाग मिलता है वह यद्यपि उतना तो नहीं मिलता जितना कषायके सद्भावमें कमसे कम मिलना सम्भव है। फिर भी वह सत्तामें शेष रहे असातावेदनीयके अनुभागसे अनन्तगुणा अवश्य होता है। और वह प्रति समय उदयवाला होता है, इसलिए असातावेदनीयके उदयकालमें भी इसका उदय रहनेसे असातावेदनीयका उदय सातावेदनीय रूपसे परिणम जानेके कारण भी केवली जिनको भूख-प्यासकी बाधा नहीं होती, इसलिए भी केवली जिन कवलाहार ग्रहण नहीं करते । यहाँ हमने केवली जिन कवलाहार नहीं लेते इसकी पुष्ठिमें जो तीन हेतु उपस्थित किये हैं उन्हें दोनों परम्पराएँ स्वीकार करती हैं, क्योंकि इस विषयमें दोनों परम्पराओंमें कर्मशास्त्रकी प्ररूपणा एक समान है। (३) स्त्रीमुक्ति । श्वेताम्बर मानते हैं कि योनि-कुच आदि शरीररूप स्त्री-पर्यायके मिलनेपर भी उस पर्यायसे मुक्ति लाभ हो सकता है। परन्तु दिगम्बर परम्परा इसे स्वीकार नहीं करती क्योंकि उक्त प्रकारकी स्त्री कभी भी बुद्धिपूर्वक वस्त्रका त्याग कर पूर्ण स्वावलम्बनकी दीक्षा ग्रहण करने में असमर्थ रहती है, इसलिए उसे मुक्तिका लाभ मिलना उसी प्रकार असम्भव है जैसे सूर्य की किरणोंका शीतल होना असम्भव है।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012004
Book TitleFulchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain, Kailashchandra Shastri
PublisherSiddhantacharya Pt Fulchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Varanasi
Publication Year1985
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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