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________________ बुन्देलखण्डका सांस्कृतिक वैभव भारतीय परम्परामें बुन्देलखण्डका महत्वपूर्ण स्थान है । यहाँके सुरम्य उपवन, कलकल करती हुई अस्खलित धारासे बहने वाली नदियाँ, सघन वृक्षों और मनोहारी उपत्यकाओंसे विभूषित पर्वत श्रेणियाँ तथा उपजाऊ मैदान इनकी शोभामें चार चाँद लगा देते हैं । भौगोलिक दृष्टिसे तो इसका महत्व है ही, राजनैतिक और सामाजिक दृष्टिसे भी इसका महत्व है। दिल्ली और आगराका समीपवर्ती प्रदेश होने पर भी इस प्रदेशमें मुस्लिम संस्कृतिका विशेष प्रभाव दृष्टिगोचर नहीं होता इसका कारण इसकी अपनी सभ्यता और स्वाधीन वत्तिके प्रति विशेष आस्था ही है। बन्देलखण्ड तो हमारा निवास स्थान ही है । अन्य प्रदेशोंको भी हमने निकटसे देखा है, किन्तु यहाँके जैनोंमें हमने जो आचार शुद्धि और विचार शुद्धि देखी है उसके अन्यत्र सर्वांगीण दर्शन नहीं होते । भगवान महावीर और श्रुतकेवली भद्रबाहके बाद जैन परम्परामें आचार्य श्री कुन्दकुन्दका विशेष स्थान है। उनके द्वारा प्रतिपादित मोक्षमार्गके अनुरूप बाह्य क्रियाकाण्डको अपने जीवनका अंग बनानेकी यदि किसीकी इच्छा हो तो बुन्देलखण्डसे ही इसकी शिक्षा लेनी होगी। इस दृष्टिसे इसका स्थान सर्वोपरि है। ___ यद्यपि बुन्देलखण्डमें आजीविकाके साधन स्वल्प हैं। इस कारण यहाँके जैन समाजकी आर्थिक स्थिति बहुत समुन्नत नहीं कही जा सकती। फिर भी यहाँका जैन समाज कष्टसहिष्णु जीवन बिताकर बचे हुए अर्थका उपयोग संस्कृति निर्माणके कार्यों में सदासे करता आ रहा है । श्रीपपौराजीके उत्तुंग जिनालय तथा अन्य तीर्थक्षेत्र इसके प्रांजल उदाहरण हैं । यहाँके तीर्थक्षेत्रोंकी मूर्ति निर्माणकला और वास्तुनिर्माणकला बेजोड़ है । वह भव्यजनोंको अपनी विशेषताके कारण सहज ही अपनी ओर आकर्षित कर मोक्षमार्गका पथ प्रशस्त करती रहती है । आप बुन्देलखण्डके श्री पपौराजी, आहारजी, क्षेत्रपाल ललितपुर, देवगढ़, चंदेरी, बूढ़ी चंदेरी, थूबोनजी, खजुराहो, द्रोणगिरि, नैनागिरि, कुण्डलगिरि, स्वर्णगिरि आदि किसी भी तीर्थक्षेत्र पर चले जाइये वहाँके दर्शन करने मात्रसे आपको अपूर्व शांतिका अनुभव होगा । धन्य हैं वे तीर्थक्षेत्र और धन्य हैं वे पुण्य-पुरुष जिन्होंने अपनी धर्मभावनावश इन तीर्थक्षेत्रोंको वर्तमान रूप प्रदान किया है। उसके सामने वे महाशय अति तुच्छ हैं जो लौकिक कामनावश या यशकी लिप्सावश अपने आपको चिरस्थायी बनानेके अभिप्रायसे धार्मिक मनोवृत्तिको दूषित करते रहते हैं । तेरापंथ कोई पंथ नहीं है । किन्तु यह मोक्षमार्गकी दृष्टिसे अनादिकालसे प्रचलित गृहस्थोंकी उपासनाका साधन मात्र है। वर्तमान कालमें यद्यपि इसे आचार्य कुन्दकुन्दका शुद्धाम्नाय कहा जाता है। किन्तु इस कालमें इसे आचार्य कुन्दकुन्दने चलाया है ऐसी जिसकी समझ है वह भूल है । मूलाचार आदि आगम ग्रन्थोंका अध्ययन करनेसे यह स्पष्ट हो जाता है कि यह गृहस्थोंकी मोक्षमार्गके अनुरूप वह पूजापद्धति है जो जैनाचार और विचारके अनुरूप होनेके कारण अनादिकालसे जैन परम्परामें प्रचलित रही है। बुन्देलखण्डने अपने नित्यनैमित्तिक जीवनमें निरपवादरूपसे इसे अपनाया है । अतएव विश्वास है कि वह प्रत्येक अवस्थामें इसकी रक्षा करेगी । इसमें गुण अधिक है और दोष कम, यह इसकी विशेषता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012004
Book TitleFulchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain, Kailashchandra Shastri
PublisherSiddhantacharya Pt Fulchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Varanasi
Publication Year1985
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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