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________________ मूलसंघशुद्धाम्नायका दूसरा नाम ही तेरापन्थ है दिगम्बर परम्परामें दो आम्नाय मख्य हैं-एक मलसंघ और दूसरा काष्ठासंघ । इस परम्परामें शेष जितने भी भेद-प्रभेद प्रचलित हैं वे सब इन दो भेदोंमें ही गर्भित हो जाते हैं। उन सबमें मूलसंघ यह अपने नामके अनुसार सबसे प्राचीन है। इससे जिन शासनकी अनादि परम्पराका बोध होता है। काष्ठासंघ मध्यकालमें जब लौकिक आचारसे प्रभावित हो दिगम्बर साधुओंने जैन समाजमें अपना स्थान बना लिया था, उस समयसे प्रचलनमें आया है। शिथिलाचार इसकी अपनी विशेषता है। फिर भी इस काल में मूलसंघ यह नाम कबसे प्रचलित हुआ तो मालूम पड़ता है कि श्रुतकेवली भद्रबाहके कालमें श्रीसंघके दो भागोंमें विभक्त हो जानेके बाद ही यह नाम प्रचलनमें आया है। इससे सिद्ध है कि पूरे श्री संघमें इसके पहले जो आम्नाय प्रचलित थी उसे ही उत्तर कालमें 'मूलसंघ' इस नामसे अभिहित किया जाने लगा। शिलापट्ट और मूर्तिलेख आदिमें इस नामका कबसे उल्लेख किया जाने लगा यह कहना तो थोडा कठिन है। परन्तु हमारे पास जो मतिलेख आदिका संकलन शेष बचा है उसमें एक ऐसा भी लेख है जिससे यह निश्चयपूर्वक कहा जा सकता है कि ७वीं शताब्दीके पूर्व ही मूर्तिलेखों आदिमें 'मूलसंघ' का उल्लेख किया जाने लगा था । वह लेख इस प्रकार है वि० संवत् ६१० वर्षे माघ सुदी ११ मूलसंघे पौरपाटान्वये पाटन (ल) पुठसंघही। साढोरा (गुना) म०प्र०। जैसा कि हम पहले लिख आये हैं, इस संघके प्रशस्ति आदिमें उल्लेख करनेकी पद्धति भद्रबाहुके कालमें ही चालू हो गयी थी । उत्तर कालमें इस नामके पीछे तीन विशेषण और लगे हुए दृष्टिगोचर होते हैं। किसी लेखमें 'बलात्कारगणे, सरस्वतीगच्छे, कुन्दकुन्दाचार्यान्वये ये तीनों विशेषण लगे हए हैं। __ हमारे पास जो लेख संग्रह शेष बचा है उसमें सर्वप्रथम मूलसंघके विशेषणरूपसे 'सरस्वतीगच्छ बलात्कारगण' ये दो विशेषण लगे हुए दृष्टिगोचर होते हैं । पूरा लेख इस प्रकार है _ वि. संवत् १००७ मासोत्तममासे फाल्गुनमासे शुक्लपक्षे तिथौ चतुर्थ्यां बुधवासरे श्रीमूलसंघ सरस्वतीगच्छ बलात्कारगण ठाकुरसी दास प्रतिष्ठितं ।' बूढी चन्देरी (गुना) स्थित १२वीं शताब्दीका एक लेख भी हमारे संग्रहमें है। उसमें मात्र कुन्दकुन्दान्वय नन्दिसंघका उल्लेख है । लेखका वह अंश इस प्रकार है 'श्री कुन्दकुन्दान्वय नन्दिसंघे जातो मुनिः श्रीशुभकोतिसूरिः ।' ये दो उल्लेख हैं। उनके आधारसे यह स्पष्ट हो जाता है कि प्रारम्भमें और बादमें भी मूलसंघके विशेषणके रूपमें उक्त विशेषणोंका लगाया जाना ऐच्छिक रहा है। जैसे जैसे नई परिस्थितियाँ उत्पन्न होती गई वैसे-वैसे इन विशेषणोंका प्रयोग विशेषरूपसे होने लगा। १. भट्टारक सम्प्रदाय पृ० ४४ में प्रो० वी० पी० जोहरापुरकरने यह संकेत किया है कि “१४वीं सदीसे मलसंघके साथ सरस्वतीगच्छ और उसके पर्यायवाची भारती, वागेश्वरी, शारदा आदि नाम जुड़े हैं।' यह उक्त प्रतिमालेखको देखनेसे ठीक प्रतीत नहीं होता। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012004
Book TitleFulchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain, Kailashchandra Shastri
PublisherSiddhantacharya Pt Fulchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Varanasi
Publication Year1985
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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