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________________ ५३४ सिद्धान्ताचार्य पं० फुलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन ग्रन्थ : रह कर जो कुछ करनेको आता है उसका नहीं करना भी पाप है। ऊपर इस कथनसे इतना तो पता चल जाता है कि देव द्रव्यको ग्रहण करनेका जो निषेध किया है वह स्वार्थकी दृष्टिसे ही किया है अथवा मूलको सुरक्षित रखने की अपेक्षासे भी निषेध किया है। यदि समाजकी इच्छा हुई तो वह उस द्रव्यको सुरक्षित रखकर भी उससे समाजकल्याणके बहुत कुछ काम कर सकती है। जैन समाज धीरे धीरे पिछड़ती जा रही है उसका व्यापार दूसरे लोगों में बँटता जा रहा है, बेकारोंकी संख्या बढ़ रही है। फिर भी किसीका उस ओर ध्यान नहीं, यह चिंताकी बात नहीं तो और क्या है । 'न धर्मो धार्मिकविना' धर्मात्मा पुरुषोंके अस्तित्व के बिना धर्म टिक नहीं सकता है । जैसे दूसरे धर्मायतन हैं उसी प्रकार धर्मात्मा पुरुष भी धर्मायतन समझना चाहिये । यदि हम एक मंदिरकी रक्षाके लिये लाखों रुपया खर्च कर सकते हैं तो धर्मात्मा पुरुषकी रक्षाके लिये भी उतना ही खर्च करने की अपनी शक्ति होनी चाहिये। इसका तात्पर्य यही है कि देवद्रव्य धार्मिकता के रक्षणके लिए ही संचित किया जाता है इसलिए यदि जैन समाज विचार करके जिससे अपनी समाजमें कला, विद्या, विज्ञान और रोजगारकी वृद्धि होकर समाज सम्पन्न बने इस ओर भी देवद्रव्यका उपयोग करने लगे तो वह सबसे अधिक धर्मात्मा सिद्ध होगी । जिसदिन समाज पैसेकी अपेक्षा श्रावककी अधिक चिंता करेगी वह सुदिन होगा। जिन भाईयोंको श्रावकोंकी दुर्दशा बेकारी और अज्ञानका पता लगाना हो तो उन्हें थोड़ा शहर छोड़कर खेड़ों में जाकर देखना चाहिए तब पता लगेगा कि हमारी संस्कृति कितनी अधिक निकृष्ट होती जा रही है। क्या हमारे नेताओंको इस परिस्थितिके देखने में आनन्द आता होगा ? क्या वे समाजकी संस्कृतिके नष्ट करने में ही समाजका कल्याण समझते होंगे ? हमारी समझसे यह वो सम्भव नहीं है फिर वे समाजकी संस्कृतिके सुधारनेका प्रयत्न क्यों नहीं करते है ? इन प्रश्नोंका यही उत्तर दिया जा सकता है कि समाजको अभी अपने भाईयोंकी रक्षा, उन्नति और संस्कृति सुधारका महत्त्व समझमें ही नहीं आया है अथवा वह उस भूल गई है। तभी तो वह इस ओर ध्यान नहीं देती है । आशा है - समाज देव द्रव्यको भी समाजके उत्थान के लिए खर्च करनेमें अधर्म न समझकर इस ओर विचार करेगी । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012004
Book TitleFulchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain, Kailashchandra Shastri
PublisherSiddhantacharya Pt Fulchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Varanasi
Publication Year1985
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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