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________________ ४९८ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ "अन्ने पढंति आउक्कोसस्स छ ति ।...."अन्ने पढंति मोहस्स णव उठाणाणि ।" शतककी चूणि कब लिखी गई इसके निर्णयका अब तक कोई निश्चित आधार नहीं मिला है । मुक्ताबाई ज्ञानमन्दिर डभोई से प्रकाशित होने वाली चूर्णिसहित सित्तरीकी प्रस्तावनामें पं० अमृतलालजीने एक प्रमाण' अवश्य उपस्थित किया है । यह प्रमाण खंभातमें स्थित श्री शान्तिनाथजीकी ताडपत्रीय भंडारकी एक प्रतिसे लिया गया है । इसमें शतककी चूणिका कर्ता श्रीचन्द्रमहत्तर श्वेताम्बराचार्यको बतलाया है। ये चन्द्रमहत्तर कौन है, इसका निर्णय करना तो कठिन है। कदाचित् ये पंचसंग्रहके कर्ता चन्द्रषिमहत्तर हो सकते हैं। यदि पंचसंग्रह और शतककी चूणिके कर्ता एक ही व्यक्ति हैं तो यह अनुमान किया जा सकता है कि दिगम्बर परम्पराके पंचसंग्रहका संकलन चन्द्रषिमहत्तरके पंचसंग्रहके पहले हो गया था। इस प्रकार प्राकृत पंचसंग्रहकी प्राचीनताके अवगत हो जानेपर उसमें निबद्ध सप्ततिकाकी प्राचीनता तो सुतरां सिद्ध हो जाती है। प्रेमी अभिनन्दन ग्रन्थमें प० हीरालाल जी सिद्धान्तशास्त्रीका 'प्राकृत और संस्कृत पंचसंग्रह तथा उनका आधार' शीर्षक एक लेख छपा है। उसमें उन्होंने प्राकृत पंचसंग्रहको सप्ततिकाका आधार प्रस्तुत सप्ततिकाको बतलाया है। किन्तु जबतक इसकी पुष्टिमें कोई निश्चित प्रमाण नहीं मिलता तब तक ऐसा निष्कर्ष निकालना कठिन है। अभी तो केवल इतना ही कहा जा सकता है कि किसी एकको देखकर दूसरी सप्ततिका लिखी गई है। ४. विषय परिचय सप्ततिकाका विषय संक्षेपमें उसकी प्रथम गाथामें दिया है । इसमें आठों मूल कर्मों व अवान्तर भेदोंके बन्धस्थान, उदयस्थान और सत्त्वस्थानोंका स्वतन्त्र रूपसे व जीवसमास और गुणस्थानोंके आश्रयसे विवेचन करके अन्तमें उपशम विधि और क्षपणा विधि बतलाई गई है । कर्मोंकी यथासम्भव दस अवस्थाएँ होती हैं । उनमेंसे तीन मख्य है-बन्ध, उदय और सत्त्व । शेष अवस्थाओंका इन तीनमें अन्तर्भाव हो जाता है । इसलिए यदि यह कहा जाय कि कर्मोकी विविध अवस्थाओं और उनके भेदोंका इसमें सांगोपांग विवेचन किया गया है तो कोई अत्यक्ति न होगी। सचमुच में ग्रन्थका जितना परिमाण है उसे देखते हए वर्णन करनेकी शैलीकी प्रशंसा करनी ही पड़ती है। सागरका जल गागरमें भर दिया गया है। इतने लघुकाय ग्रन्थमें इतने विशाल और गहन विषयका विवेचन कर देना हर किसीका काम नहीं है। इससे ग्रन्थकर्ता और ग्रन्थ दोनोंकी ही महानता सिद्ध होती है । इसकी प्रथम और दूसरी गाथामें विषयकी सूचना की गई है। तीसरी गाथामें आठ मूल कर्मोके संवैध भंग बतलाकर चौथी और पांचवीं गाथामें क्रमसे उनका जीवसमास और गुणस्थानोंमें विवेचन किया गया है । छठी गाथामें ज्ञानावरण और अन्तराय कर्मके अवान्तर भेदोंके संवैध भंग बतलाये हैं । सातवींसे लेकर नौंवीके पूर्वार्ध तक ढाई गाथामें दर्शनावरण के उत्तर भेदोंके संवध भंग बतलाये हैं । नौवीं गाथाके उत्तरार्धमें वेदनीय, आयु और गोत्र कर्मके संवेध भंगोंके कहने की सूचना मात्र करके मोहनीयके कहनेकी प्रतिज्ञा की गई है। दसवीसे लेकर तेईसवीं गाथा तक १४ गाथाओं द्वारा मोहनीयके और २४वीं गाथासे लेकर ३२वीं गाथा तक ९ गाथाओं द्वारा नामक के बन्धादि स्थानों व संवध भंगोंका विचार किया गया है। आगे ३३वीं गाथासे लेकर ५२वी गाथा तक २० गाथाओं द्वारा अवान्तर प्रकृतियोके उक्त संवेध भंगोंको जीवसमासों और गुणस्थानोंमें घटित करके बतलाया गया है । ५३वीं गाथामें गति आदि मार्गणाओंके साथ सत् आदि आठ अनुयोग द्वारोंमें उन्हें घटित करनेकी सूचना की है। इसके आगे प्रकरण बदल जाता १. कृतिराचार्य श्रीचंद्रमहत्तरशितांवरस्य शतकस्य । प्रशस्तचू"..."दि ६ शनी लिखितेति ।।६।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012004
Book TitleFulchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain, Kailashchandra Shastri
PublisherSiddhantacharya Pt Fulchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Varanasi
Publication Year1985
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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