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________________ चतुर्थ खण्ड : ४९७ यद्यपि कर्मकाण्डमें अनन्तानुबन्धी चतुष्कका उपशम होता है इस बातका विधान नहीं किया है तथापि वहाँ उपशमश्रेणिमें मोहनीयकी २८ प्रकृतियोंकी भी सत्ता' बतलाई है। इससे सिद्ध होता है कि नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती अनन्तानुबन्धीके उपशमवाले मतसे भलीभांति परिचित थे। दूसरे मतका विधान करते हुए गोम्मटसारके त्रिभंगो प्रकरणमें निम्नलिखित गाथा आई है गउदी णउदी अडचउदोअहियसीदि सीदी य । ऊणासीदद्वत्तरि सत्तत्तरि दस य णव संता ॥६०९।। यह गाथा प्राकृत पंचसंग्रहकी सप्ततिकासे ली गई है । वहाँ इसका रूप इस प्रकार है तिदुइगिणउदि णउदि अडचउद्गहियमसीदिमसीदिं च । उणसीदिं अट्ठत्तरि सत्तत्तरि दस य णव संता ॥२३॥ इन गाथाओंमें नामकर्मके सत्त्वस्थान बतलाये गये हैं। इन सत्त्वस्थानोंका निर्देश करते समय चाल कार्मिक परम्पराके विरुद्ध एक विशेष सिद्धांत स्वीकार किया गया है। चालू कार्मिक परम्परा यह है कि बन्ध और संक्रम प्रकृतियोंमें पांच बन्धन और पांच संघात पाँच शरीरोंसे जुदे न गिनाये जाकर भी सत्त्वमें जुदे गिनाये जाते हैं । किन्तु यहाँ इस क्रमको छोड़कर ये सत्त्वस्थान बतलाये गये हैं। प्राचीन ग्रन्थोंमें यह मत प्राकृत पंचसंग्रहकी सप्ततिकाके सिवा अन्यत्र देखने में नहीं आया । मालूम होता है कि नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्तीने प्राकृत पंचसंग्रहके आधारसे ही कर्मकाण्डमें इस मतका संग्रह किया है । ये प्रमाण ऐसे हैं जिनसे हम यह जान लेते हैं कि प्राकृत पंचसंग्रहकी रचना गोम्मटसार और अमितिगतिके पंचसंग्रहके पहले हो चुकी थी। किन्तु इनके अतिरिक्त कुछ ऐसे भी प्रमाण मिलते हैं जिनसे यह भी ज्ञात होता है कि इसकी रचना धवला टीका और श्वेताम्बर परम्परामें प्रचलित शतककी चणिकी रचना होनेके भी पहले हो चुकी थी। धवला चौथी पुस्तकके पृष्ठ ३१५ में वीरसेन स्वामीने 'जीवसमासए वि उत्तं' कहकर 'छप्पंचणव उदधतकी गई है। यह गाथा प्राकृत पंचसंग्रहके जीवसमास प्रकरणमें १५९ नम्बर पर दर्ज है । इससे ज्ञात होता है कि प्राकृत पंचसंग्रहका वर्तमानरूप धवलाके निर्माणकालके पहले निश्चित हो गया था। ऐसा ही एक प्रमाण शतककी चणिमें भी मिलता है जिससे जान पड़ता है कि शतक की चणि लिखे जानेके पहले प्राकृत पंचसंग्रह लिखा जा चुका था ।। शतककी ९३ वें गाथाकी चूणिनें दो बार पाठान्तरका उल्लेख किया है। पाठान्तर प्राकृत पंचसंग्रहमें निबद्ध दिगम्बर परम्पराके शतकसे लेकर उधत किये गये जान पड़ते हैं । शतककी ९३वीं गाथा इस प्रकार है _ 'आउक्कस्स पएसस्स पंच मोहस्स सत्त ठाणाणि । सेसाणि तणुकसाओ बंधइ उक्कोसगे जोगे ॥९३॥' प्राकृत पंचसंग्रहके शतकमें यह गाथा इस प्रकार पाई जाती है 'आउसस्स पदेसस्स छच्च मोहस्स णव दु ठाणाणि । सेसाणि तणुकसाओ बंधइ उक्कस्सजोगेण ॥' इन गाथाओंको देखनेसे दोनोंका मतभेद स्पष्ट ज्ञात हो जाता है । शतककी चूर्णिमें इसी मतभेदकी चर्चा की गई है। वहाँ इस मतभेदका इस प्रकार निर्देश किया है१. देखो गो कर्म० गा० ५११ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012004
Book TitleFulchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain, Kailashchandra Shastri
PublisherSiddhantacharya Pt Fulchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Varanasi
Publication Year1985
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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