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________________ चतुर्थ खण्ड : ४९५ सेनीय टीका, शतकबृहच्चूर्णि, सत्कर्मग्रन्थ, पंचसंग्रहमूलटीका, कर्मप्रकृति, आवश्यकचूणि, विशेषावश्यकभाष्य, पंचसंग्रह और कर्मप्रकृतिचूणि इन ग्रन्थोंका भी भरपूर उपयोग किया गया है । इसके अलावा बहुतसे ग्रन्थोंके उल्लेख 'उक्तं च' कहकर दिये गये हैं। तात्पर्य यह है कि मूल विषयको स्पष्ट करनेके लिए यह वृत्ति खूब सजाई गई है। आचार्य मलयगिरि, आचार्य हेमचन्द्र और महाराज कुमारपालदेवके समकालीन माने जाते है। इनकी टीकाओंके कारण श्वेताम्बर जैनवाङ्मयके प्रसार करनेमें बड़ी सहायता मिली है। हमें यह प्रकाशित करते हुए प्रसन्नता होती है कि सप्ततिकाका प्रस्तुत अनुवाद आचार्य मलयगिरिका इसी वृत्तिके आधारसे लिखा गया है। ३. अन्य सप्ततिकाएँ पंचसंग्रहको सप्ततिका-प्रस्तुत सप्ततिकाके सिवा एक सप्ततिका आचार्य चन्द्रषिमहत्तर कृत पंचसंग्रहमें ग्रथित है। पंचसंग्रह एक संग्रह ग्रंथ है । यह पाँर प्रकरणोंमें विभक्त है। इसके अन्तिम प्रकरणका नाम सप्ततिका है। ___एक तो पंचसंग्रहके सप्ततिकाकी अधिकतर मूल गाथाएँ प्रस्तुत सप्ततिकासे मिलती-जुलती हैं, दूसरे पंचसंग्रहकी रचना प्रस्तुत सप्ततिकाके बहुत काल बाद हुई है और तीसरे इसका नाम सप्ततिका होते हुए भी इसमें १५६ गाथाएँ हैं । इससे ज्ञात होता है कि पंचसंग्रहकी सप्ततिका आधार प्रकृत सप्ततिका ही रहा है। दिगम्बर परम्परामें प्रचलित सप्ततिका-एक अन्य सप्ततिका दिगम्बर परम्परामें प्रचलित है। यद्यपि अब तक इसकी स्वतन्त्र प्रति देखने में नहीं आई है तथापि प्राकृत पंचसंग्रहमें उसके अंगरूपसे यह पाई जाती है। प्राकृत पंचसंग्रह' एक संग्रह ग्रन्थ है। इसमें जीवसमास, प्रकृति-समुत्कीर्तन, बन्धोदयसत्त्वयुक्त पद, शतक और सप्ततिका इन पांच ग्रन्थोंका संग्रह किया गया है। इनमेंसे अन्तके दो प्रकरणों पर भाष्य भी है। आचार्य अमितिगतिका पंचसंग्रह इसीके आधारसे लिखा गया है। अमितिगतिका पंचसंग्रह संस्कृतमें होनेके कारण इसे प्राकृत पंचसंग्रह कहते हैं । यह गद्य-पद्य उभयरूप है। इसमें गाथाएँ १३०० से अधिक है। इसके अन्तके दो प्रकरण शतक और सप्तिकाका कुछ पाठभेदके साथ श्वेताम्बर परम्परामें प्रचलित शतक और सप्ततिकासे मिलते-जुलते हैं। तत्त्वार्थसूत्रके बाद ये ही दो ग्रन्थ ऐसे मिले हैं जिन्हें दोनों परम्पराओंने स्वीकार किया है। दिगम्बर परम्परामें प्रचलित इन दोनों ग्रन्थोंका स्वयं पंचसंग्रहकारने संग्रह किया है या पंचसंग्रहकारने इन पर केवल भाष्य लिखा है इसका निर्णय करना कठिन है। इसके लिए अधिक अनुसंधानकी आवश्यकता है। दोनों सप्तिकाओंमें पाठभेद और उसका कारण प्रस्तुत सप्ततिकामें ७२ और दिगम्बर परम्पराकी सप्ततिकामें ७१ गाथायें हैं, जिनमेंसे ४० से अधिक गाथाएँ एकसी हैं । १४-१५ गाथाओंमें कुछ पाठभेद है । शेष गाथाएँ जुदी-जुदी है । इसके कारण दो हैं, मान्यता भेद और वर्णन करनेकी शैलीमें भेद । मान्यता भेदके हमें चार उदाहरण मिले है । यथा १. प्रस्तुत सप्ततिकामें निद्राद्विकका उदय क्षपकश्रेणिमें नहीं होता, इस मतको प्रधानता देकर भंग १. पंचसंग्रहकी एक प्रति हमें हमारे मित्र पं० हीरालाल शास्त्रीने भेजी थी जिसके आधारसे यह परिचय लिखा गया है । पंडितजीके इस कार्यके लिए हम उनका सम्पादकीय वक्तव्यमें आभार मानना भूल गये है, इसलिए यहाँ उनका विशेष रूपसे स्मरण कर लेना हम अपना कर्तव्य समझते हैं । शतक और सप्ततिकाकी चूणि भी उन्हींसे प्राप्त हुई थीं। उनका प्रस्तावनामें बड़ा उपयोग हुआ है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012004
Book TitleFulchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain, Kailashchandra Shastri
PublisherSiddhantacharya Pt Fulchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Varanasi
Publication Year1985
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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