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________________ ४७४ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ नयोंके विबेचनके प्रसंगसे आगे (पृ० ३४-३५ में) गुरुजीने अन्य आचार्यके उपदेशानुसार संक्षेपमें इन नयोंका पुनः स्वरूपनिर्देश किया है। किन्तु इस विवेचनमें कोई नई बात नहीं कही गई । इसपर अपना अभिप्राय व्यक्त करते हुए गुरु जीने (पृ० ३५ में) स्वयं लिखा है ___'यद्यपि ये छह भेद किसी आचार्यने अध्यात्मसम्बन्धसे संक्षेपमें कहे हैं, परन्तु ये छह भेद प्रथम कहे हुए ३६ भेदोंमेंसे किसी न किसी भेदमें गर्भित हो जाते हैं ।' आदि, (पृ० ३५) ४. निक्षेपका निरूपण करते हुए गुरुजीने सर्वप्रथम 'जुत्तोसु जुत्तमग्गे' यह प्राचीन गाथा उद्धृत कर निक्षेप किसे कहते हैं इसका स्पष्टीकरण किया है। निक्षेपके अनेक भेद है। उनमें नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव ये चार भेद मुख्य हैं । इनका सर्वार्थसिद्धि और गोम्मटसार कर्मकाण्डमें विस्तृत विवेचन किया है । गुरुजीने उन्हीं ग्रन्थोंके आधारसे यह प्रकरण लिखा है। एक-एक शब्द अनेक अर्थों में पाया जाता है उनमेंसे अप्रकृत अर्थका निराकरण कर प्रकृत अर्थका ज्ञान करानेके लिए निक्षेपविधि की जाती है। जैन परम्परामें एक मात्र इसी अभिप्रायसे इसे मुख्यता मिली हुई है यह इस प्रकरणसे स्पष्ट ज्ञात हो जाता है। दूसरे अधिकारका नाम है-द्रव्यसामान्यनिरूपण (प० ३९ से ११८)। यह अधिकार पञ्चाध्यायी, पञ्चास्तिकाय, तत्त्वार्थवार्तिक और अष्टसहस्री आदि अनेक आगम ग्रन्थोंके परिशीलनका सुपरिणाम है । सर्वप्रथम इस अधिकारमें आगमकी प्राचीन दो गाथाएँ उद्धृत कर द्रव्यके तीन लक्षण निर्दिष्ट किये गये हैं। यथा १. जो स्वभाव अथवा विभाव पर्यायरूप परिणमे है. परिणमेगा और परिणम्या सो आकाश, जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म और काल भेदरूप द्रव्य है । २. जो तीन कालमें उत्पाद, व्यय, ध्रौव्यस्वरूप सत्करि सहित होवे उसे द्रव्य कहते हैं । ३. तथा जो गुण-पर्यायसहित अनादिसिद्ध होवे उसे द्रव्य कहते हैं। ये द्रव्यके तीन लक्षण हैं। इस अधिकारका मुख्य विवेच्य विषय इन्हींका स्पष्टीकरणमात्र है। या प्रथम लक्षणके अनुसार द्रव्यकी प्रसिद्धि करते हए गरुजीने पर्यायको लक्ष्यमें रखकर लिखा है-- (क) 'द्रव्यमें अंशकल्पनाको पर्याय कहते हैं। उस अंशकल्पनाके दो भेद कहे है-एक देशांश कल्पना, दूसरी गुणांशकल्पना (पृ० ३९)।' आगे देशांशकल्पनाको द्रव्यपर्याय ओर गुणांशकल्पनाको गुणपर्याय बतलाकर गुणपर्यायके दो भेद किये है-अर्थगुणपर्याय और व्यञ्जनगुणपर्याय । साथ ही इन दोनोंका स्पष्टीकरण करते हुए लिखा है १. 'ज्ञानादिक भाववती शक्तिके विकारको अर्थगुणपर्याय कहते हैं । २. प्रदेशवत्त्व गुणरूप क्रियावतीशक्तिके विकारको व्यञ्जनगुणपर्याय कहते हैं। इस ही व्यञ्जन गुणपर्यायको द्रव्यपर्याय भी कहते हैं, क्योंकि व्यञ्जनगु णपर्याय द्रव्यके आकारको कहते हैं । सो यद्यपि यह आकार प्रदेशवत्त्व शक्तिका विकार है, इसलिए इसका मुख्यतासे प्रदेशवत्त्वगणसे सबन्ध होनेके कारण इसे व्यञ्जनगण पर्याय ही कहना उचित है, तथापि गौणतासे इसका देशके साथ भी सम्बन्ध है, इसलिए देशांशको द्रव्यपर्यायकी उक्तिकी तरह इसको भी द्रव्यपर्याय कह सकते हैं (पृ० ४०)।' आगे इन दोनों प्रकारकी पर्यायोंमेंसे प्रत्येकके स्वभाव और विभाव ये दो भेद करके लिखा है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012004
Book TitleFulchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain, Kailashchandra Shastri
PublisherSiddhantacharya Pt Fulchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Varanasi
Publication Year1985
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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