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________________ चतुर्थ खण्ड : ४७३ करके प्रत्यक्षके दो भेद किये हैं-सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष और पारमार्थिक प्रत्यक्ष । इनमेंसे सांव्यवहारिक प्रत्यक्षमें मतिज्ञान और उसके अवान्तर भेदोंको लिया है । तथा पारमार्थिक प्रत्यक्षके विकल और सकल ये दो भेद करके विकल प्रत्यक्षमें अवधिज्ञान और मनःपर्ययज्ञानको तथा सकलप्रत्यक्षमें केवलज्ञानको लिया है । परोक्षज्ञानका निरूपण करते हुए उसके स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, तर्क, अनुमान और आगम ये पाँच भेद किये हैं । प्रमेयकमलमार्तण्ड, प्रमेयरत्नमाल आदि न्याय-दर्शनशास्त्रके ग्रन्थोंमें इन ज्ञानोंकी जिस ढंगसे प्ररूपणा की गई है उसी सरणिको अपनाकर गुरुजीने इन ज्ञानोंका निरूपण किया है । यही कारण है कि उनके इस निरूपणमें मतिज्ञान और श्रुतज्ञान इन दो ज्ञानोंका इस प्रसंगसे कहीं पर नामोल्लेख भी दृष्टिगोचर नहीं होता। स्पष्ट है कि उन्होंने मतिज्ञानको सांव्यवहारिक प्रत्यक्षरूपसे और श्रुतज्ञानको परोक्षज्ञानरूपसे स्वीकारकर इन ज्ञानोंकी प्रमाणज्ञानरूपसे प्ररूपणा की है। गुरुजी किसी भी प्रमयका अव्यभिचारी लक्षण निर्दिष्ट करने में बड़े पटु रहे है यह इस प्रकरणपर दृष्टि डालनेसे स्पष्ट ज्ञात हो जाता है । ३. नयज्ञानका निरूपण (२२ से ३५ पृ० तक) करते हुए सर्वप्रथम गुरुजीने अनेकान्तस्वरूप वस्तुकी स्थापना करके और साथ ही ज्ञानकी स्वार्थ और परार्थ इन दो भेदोंमें स्थापना करके वाक्योंको सकलादेश और विकलादेश इन दो भागोंमें विभक्त किया है और अन्तमें बतलाया है कि विकलादेश वाक्यकी ही नववाक्य संज्ञा है तथा इससे जो ज्ञान होता है उसे ही भावनय कहते हैं । नयके निरूपणमें गुरुजीने श्रीदेवसेनके नयचक्रको मुख्य आलम्बन बनाया है । आगम प्रमाणोंको उद्धृत करते हुए आचार्य पूज्यपादकी सर्वार्थसिद्धि और स्वामी कार्तिकेयकी द्वादशानुप्रेक्षाके उद्धरण भी यत्र-तत्र दृष्टिगोचर होते हैं । नयज्ञान क्या है इसकी सामान्य मीमांसा करनेके बाद उसके उत्तर भेदोंका निरूपण करते हुए गुरुजीने जो वाक्य अंकित किये है वे हृदयंगम करने योग्य हैं । वे लिखते हैं 'नयके मूल भेद दो हैं-एक निश्चयनय और दूसरा व्यवहारनय । इस ही व्यवहारनयका दूसरा नाम उपनय है। 'निश्चयमिह भूतार्थव्यवहारं वर्णयन्त्यभूतार्थम्' इस वचनसे निश्चयका लक्षण भूतार्थ और व्यवहारका लक्षण अभूतार्थ है । अर्थात् जो पदार्थ जैसा है उसको वैसा ही कहना यह निश्चयनयका विषय है । और एक पदार्थको परके निमित्तसे व्यवहारसाधनार्थ अन्यरूप कहना व्यवहारनयका विषय है।' यहाँपर गुरुजीने व्यवहारकी जो परिभाषा दी है वह मुख्यतया असद्भूत व्यवहार या उपचरित व्यवहार पर ही घटित होती है. सदभत व्यवहारकी परिभाषा इससे भिन्न प्रकार की है। यहाँ व्यवहारका प्रयोग उपचार के अर्थमें हआ है । सद्भुत व्यवहारमें अखण्ड द्रव्यमें गुण-गणी आदिके भेदसे भेदविवक्षा मुख्य है । इतना अवश्य है कि भेदव्यवहारका भी यदि अन्यके साथ सम्बन्धको दिखलाते हए कथन किया जाता है तो ऐसी अवस्थामें वह सदभतव्यवहार भी उपचरितसद्भतव्यवहार कहलाने लगता है। नयचक्रमें असद्भूतव्यवहारनयसे उपचरितनयको पृथक् मानकर उसके तीन भेद किये हैं। गुरुजीने भी इसी पद्धतिको स्वीकार कर इन नयोंका विवेचन किया है। किन्तु आलापपद्धतिमें 'उपचारः पृथग् नयो नास्तीति न पृथक् कृतः ।' यह लिखकर उसका निषेध किया है। असद्भूत व्यवहारका नाम ही उपचार है,' इस तथ्यपर दृष्टि देनेसे विदित होता है कि वस्तुतः उपचार असद्भूत व्यवहारका ही दूसरा नाम है । इनकी परिभाषाओं और उदाहरणोंको देखनेसे भी यही ज्ञात होता है। १. आलापपद्धति पृ० १६६ (बनारससे मुद्रित गुटिका)। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org |
SR No.012004
Book TitleFulchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain, Kailashchandra Shastri
PublisherSiddhantacharya Pt Fulchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Varanasi
Publication Year1985
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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