SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 500
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ चतुर्थ खण्ड : ४६३ विकलचारित्र गृहिधर्मकी प्ररूपणा आगममें दो प्रकारसे परिलक्षित होती है-एक बारहव्रतोंके रूपमें और दूसरी ग्यारह प्रतिमाके रूपमें प्रस्तुत ग्रन्थमें बारहव तरूप प्ररूपणा मुख्यरूपसेकी गयी है । उसके तीन भेद है-पाँच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत । इनकी प्ररूपणा करनेके बाद अन्तमें सल्लेखनाकी स्वतंत्ररूपसे प्ररूपणा दृष्टिगोचर होती है। जबकि आचार्य कुन्दकुन्दने स्वरचित चारित्रपाहुड़में सल्लेखनाको चार शिक्षाव्रतोंमें ही सम्मिलित कर लिया है। इन बारह व्रतोंके मूलमें अहिंसा मुख्य है। जैसे खेतमें धानकी रक्षाके लिए बाड़ी (बागड़) होती है वही स्थान अहिंसाके परिकरके रूपमें शेष व्रतोंका है। अहिंसाका अर्थ अपने निमित्तसे केवल दूसरे जीवोंका प्राणोंसे वियुक्त कर देना नहीं है । उसमें प्रमादरूप परिणतिका न होना मुख्य है । इसी बातको ध्यानमें रखकर जिनागमके सारको संक्षेपमें बतलाते हुए आचार्यदेवने अहिंसाका लक्षण करते हुए लिखा है कि रागादि भावोंका नहीं उत्पन्न होना ही अहिंसा है और उनकी उत्पत्ति होना ही हिंसा है। और इसी आधारपर हिंस्य, हिंसक, हिंसा और हिंसा-फल-इन चारोंको सम्यक प्रकारसे जानकर जिसमें आत्माकी हानि न हो इसरूपसे प्रवृत्ति करनेका आचार्यदेवने निर्देश किया है । शेष व्रतोंके स्वरूपको इसी पद्धतिसे समझ लेना चाहिए। यहाँ ५०वें मंगलसूत्र में प्रांजल रूपसे यह सूचना की गई है कि जो निश्चयको तो जानता नहीं फिर भी उसीको निश्चयसे अंगीकार करता है वह बाह्यकरण चरणमें आलसी हुआ उसका नाश करता है। सो इसकी व्याख्या पण्डित प्रवर टोडरमलजीने दो प्रकारसे की है। प्रथम व्याख्या करते हुए वे कहते हैं कि 'जो कोई केवल निश्चयका श्रद्धानी होकर यह कहता है कि यदि मैं परिग्रहादि रखू अथवा भ्रष्टाचाररूप प्रवर्तन करूं तो इससे क्या हुआ ? मेरे परिणाम ठीक होना चाहिये। ऐसा कहकर जो स्वच्छन्द प्रवर्तन करता है उस जीवने दयाके आचरणका नाश किया। वह बाह्यमें तो निर्दय हुआ ही तथा अंतरंग निमित्त पाकर परिणाम अशुद्ध होते ही होते हैं, इसलिए अन्तरंगकी अपेक्षा भी निर्दय हुआ। कैसा है वह जीव ? बाह्य द्रव्यरूप अन्य जीवकी दयामें आलसी है, प्रमादी है।' यह एक अर्थ है। इसी श्लोकका दूसरा अर्थ करते हुए वे लिखते हैं-'जो जीव निश्चयके स्वरूपको न जानकर व्यवहाररूप बाह्य परिग्रहादिके त्यागको ही निश्चयसे मोक्षमार्ग जानकर अंगीकार करता है वह जीव शुद्धोपयोगरूप दयाका नाश करता है।' ये दो अर्थ हैं जो यहाँ उक्त मंगल श्लोकके किये गये हैं । सो ऐसा करते हुए यहाँ अन्तिम चरणमें जो 'करणालसो' पाठ आया है सो वहाँ उक्त अर्थ 'करुणालसो' पाठ मानकर किया गया है । जिनदेशनाका पात्र कौन __ श्रावकको जैनधर्ममें दीक्षित होनेके साथ ही सर्वप्रथम आठ मूलगुण अंगीकार करने चाहिये। इनका उल्लेख आचार्य समन्तभद्रने भी रत्नकरण्डश्रावकाचारमें किया है। मात्र वहाँ पाँच उदुम्बर फलोंके त्यागके स्थानपर अहिंसा आदि पाँच अणुव्रत लिये गये हैं। लगता है कि उत्तरकालमें अहिंसा आदि पाँच अणुव्रतोंका व्रत प्रतिमामें अंगीकार हो जानेसे यहाँ उनके स्थानपर पाँच उदुम्बर फलोंके त्यागको मुख्यता दी गई है, क्योंकि इन पाँच उदुम्बर फलोंके भक्षणमें स्पष्टतः त्रसहिंसा होती हुई दिखाई देती है। इसी प्रकार जो दोष इन आठ पदार्थोके भक्षणमें लगता है वही दोष नवनीत (मक्खन) के खाने में भी लगता है। यही कारण है कि इस ग्रन्थमें मद्य, मांस और मधुके साथ नवनीतको भी सम्मिलित कर लिया गया है (७३)। आगे इन आठोंको अनिष्ट, दुस्तर और पापके आयतन स्वीकार करके यह स्पष्ट सूचना की गई है कि जो विवेकी इन आठका त्याग कर देता है वही जिनधर्मकी देशनाको ग्रहण करनेका पात्र होता है (७४) । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012004
Book TitleFulchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain, Kailashchandra Shastri
PublisherSiddhantacharya Pt Fulchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Varanasi
Publication Year1985
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy