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________________ ४६२ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्रौ अभिनन्दन ग्रन्थ क्यों कर रहे हैं ? प्रश्न मार्मिक हैं । समाधान यह है कि जिनागममें जो जीवादि सात तत्त्वों और पुण्य-पाप सहित नौ पदार्थोंकी प्ररूपणाकी गयी है, उनमें आस्रव तत्त्वके बाद ही संवर तत्त्वकी प्ररूपणा आती है । संवर तत्त्वके स्वरूप पर जहाँ तक दृष्टिपात करते हैं, उससे भी ऐसा ही फलित होता है कि आस्रव तत्त्वको प्ररूपणा करनेके बाद ही, उसके विरोधी, संवर तत्त्वकी प्ररूपणा करना संगत माना जा सकता है । इसी आधार पर संवर तत्त्वका लक्षण भी इस प्रकार किया गया है-आश्रव निरोधः संवरः । यही कारण है कि आचार्यदेवने पूर्वोक्त क्रमको स्वीकार करते हुए भी तत्त्वार्थसूत्र के अनुसार आसव तत्त्वगर्भ श्रावकचारको प्रथम स्थान दिया है। और तदनंतर इस ग्रंथ में संवर तत्त्वगर्भ मुनिधर्मकी प्ररूपणा की गयी है । सम्यग्दर्शनकी मुख्यता जैसा कि पहले निर्देश कर आये हैं, उसमें सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान मुख्य हैं यथार्थ माना गया है । । कोई चाहे मुनिधर्मं अंगीकार करे या श्रावकधर्म अंगीकार करे । क्योंकि इनके होनेपर ही मुनिधर्म या गृहस्थधर्म स्वीकार करना विपरिताभिनिवेश रहित जीवादि पदार्थोंका श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन है । वह पर और परभावोंसे भिन्न आत्माका निजरूप है । आगममें इसके कर्म संयोग के अभावकी विवक्षामें तीन भेद किये गये हैं-उपशम सम्यग्दर्शन, क्षयोपशम सम्यग्दर्शन और क्षायिक सम्यग्दर्शन । ये तीनों ही उपाधिके अभाव में ही होते हैं, इसलिये हैं तो वे आत्मा के निजरूप ही, फिर भी उनमें क्षायिक सम्यग्दर्शन उपाधिके सर्वथा अभावमें होता है, इसलिये उसका सद्भाव सिद्धोंमें भी पाया जाता है । उपशम सम्यग्दर्शनमें उपाधिका अभाव तो पूरी तरहसे रहता है परंतु इसमें उपाधि सत्ताके रूपमें आत्माके एकक्षेत्रावगाह में बनी रहती है । इसलिये जबतक ( अन्तमुहूर्त तक) उपाधिकी उदय उदीरणा नहीं होती है, तभीतक आत्मामें सम्यग्दर्शनका अस्तित्व स्वीकार किया गया है । क्षयोपशम सम्यग्दर्शनकी उत्पत्ति होती तो उपाधिके अभावमें ही है, फिर भी इसके कालमें देशघाती सम्यक् प्रकृतिका उदय बना रहनेसे, सम्यग्दर्शनके साथ आत्मामें चल मलिन और अगाढ दोष पैदा होते रहते हैं । इस प्रकार विचार करनेपर यह स्पष्ट हो जाता है कि तीनों ही सम्यग्दर्शन आत्मस्वरूप ही हैं । नि.शंकितादि आठ अंगोंकी प्राप्ति इन्हींके सद्भावमें सम्यक् प्रकार से होती है । इसके होनेपर जो सम्यग्ज्ञान अनेकान्तगर्भ जीवादि पदार्थ विषयक ज्ञान होता है, वह सम्यक्ज्ञान है । सम्यग्दर्शन कारण है और यह कार्य है । यद्यपि इन दोनोंकी उत्पत्ति एक साथ होती है फिर भी दीप और प्रकाश के समान इन दोनोंमें कार्यकारणभाव बन जाता है । जैसे सम्यग्दर्शनके आगम में निःशंकितादि आठ अंग कहे गये हैं, उसी प्रकार सम्यक्ज्ञानके भी आठ अंग हैं— उनके नाम हैं--व्यंजनाचार, अर्थाचार, उभयाचार, कालाचार, विनयाचार, उपयानाचार, बहुमानाचार, अनिह्नवाचार | इस प्रकार जिसने दर्शन मोहनीयका अभाव करनेके साथ जीवादि पदार्थ विषयक सम्यक्ज्ञान प्राप्त किया है, वही भले प्रकार सम्यक्चारित्रके आराधन करनेका अधिकारी माना गया है । चारित्र सर्व सावद्ययोगके परिहारपूर्वक होता है और उसमें कषायोंका अस्तित्व अनुभवमें नहीं आता, ऐसा जो जीवका पर पदार्थोंसे विरक्ततारूप आत्म परिणाम होता है वही सम्यक्चारित्र है । उसीके सकलचारित्र और विकलचारित्र ये दो भेद हैं । यह क्रमसे मुनियोंको और गृहस्थों को होता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012004
Book TitleFulchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain, Kailashchandra Shastri
PublisherSiddhantacharya Pt Fulchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Varanasi
Publication Year1985
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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