SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 494
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ चतुर्थ खण्ड : ४५७ "जिस प्रकार करोंतके बार बार चालू करनेसे पुद्गल वस्तु काष्ठ आदि दो खण्ड हो जाता है उसी प्रकार भेदज्ञानके द्वारा जीव पुद्गलको बार-बार भिन्न-भिन्न अनुभव करने पर भिन्न-भिन्न हो जाते है, इसलिए भेदज्ञान उपादेय है।' (कलश १८१, जीव कर्मको भिन्न करनेका उपाय 'जिस प्रकार यद्यपि लोहसारकी छैनी अति पैनी होती है तो भी सन्धिका विचारकर देने पर छेद कर दो कर देती है उसी प्रकार यद्यपि सम्यग्दष्टि जीवका ज्ञान अत्यन्त तीक्ष्ण है तथापि जीव-कर्मकी है जो भीतर सन्धि उसमें प्रवेश करने पर प्रथम तो बुद्धिगोचर छेदकर दो कर देता है। पश्चात् सकल कर्मका क्षय होनेसे साक्षात् छेदकर भिन्न-भिन्न करता है।' (कलश १९१) भोक्षमार्गका स्वरूप निरूपण सर्व अशुद्धपना के मिटनेसे शुद्धपना होता है । उसके सहाराका है शुद्ध चिद्रूपका अनुभव, ऐसा मोक्षमार्ग है। (कलश १९३) स्वरूप विचारकी अपेक्षा जीव न बद्ध है न मुक्त है 'एकेन्द्रियसे लेकर पञ्चेन्द्रियतक जीवद्रव्य जहाँ तहाँ द्रव्य स्वरूप विचारकी अपेक्षा बन्ध ऐसे मुक्त ऐसे विकल्पसे रहित है । द्रव्यका स्वरूप जैसा है वैसा ही है।' (कलश १९३) कर्मका (भावकर्मका) कर्तापन-भोक्तापन जीवका स्वभाव नहीं 'जिस प्रकार जीवद्रव्यका अनन्तचतुष्टय स्वरूप है उस प्रकार कर्मका कर्तापन भोक्तापन स्वरूप नहीं है। कर्मकी उपाधिसे विभावरूप अशद्ध परिणतिरूप विकार है। इसलिए विनाशीक है। उस विभाव परिणतिके विनाश होने पर जीव अकर्ता है, अभोक्ता है।' (कलश २०३) भोक्ता और कर्ताका अन्योन्य सम्बन्ध है 'जो द्रव्य जिस भावका कर्ता होता है वह उसका भोक्ता भी होता है। ऐसा होने पर रागादि अशुद्ध चेतन परिणाम जो जीव कर्म दोनोंने मिलकर किया होवे तो दोनों भोक्ता होंगे सो दोनों भोक्ता तो नहीं हैं। कारण कि जीव द्रव्य चेतन है तिस कारण सुख दुःखका भोक्ता होवे ऐसा घटित होता है, पुद्गल द्रव्य अचेतन होनेसे सुख दुःखका भोक्ता घटित नहीं होता । इसलिए रागादि अशुद्ध चेतन परिणमनका अकेला संसारी जीव कर्ता है, भोक्ता भी है।' (कलश २०९) विकल्प अनुभव करने योग्य नहीं 'जिस प्रकार कोई पुरुष मोतीकी मालाको पोना जानता है, माला गूंथता हुआ अनेक विकल्प करता है सो वे समस्त विकल्प झूठे हैं, विकल्पोंमें शोभा करनेकी शक्ति नहीं है। शोभा तो मोतीमात्र वस्तु है, उसमें है । इसलिए पहिननेवाला पुरुष मोतीकी माला जानकर पहिनता है, गूंथने के बहुत विकल्प जानकर नहीं पहिनता है, देखनेवाला भी मोतीकी माला जानकर शोभा देखता है,गूंथनेके विकल्पोंको नहीं देखता है उसी प्रकार शुद्ध चेतनामात्र सत्ता अनुभव करने योग्य है । उसमें घटते हैं जो अनेक विकल्प उन सबकी सत्ता अनुभव करने योग्य नहीं है।' (कलश २१२) जानते समय ज्ञान ज्ञेयरूप नहीं परिणमता 'जीवद्रव्य समस्त ज्ञेय वस् को जानता है ऐसा तो स्वभाव है, परन्तु ज्ञान ज्ञेयरूप नहीं होता है, ज्ञेय भी ज्ञानद्रव्यरूप नहीं परिणमता है ऐसी वस्तुकी मर्यादा है।' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012004
Book TitleFulchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain, Kailashchandra Shastri
PublisherSiddhantacharya Pt Fulchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Varanasi
Publication Year1985
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy