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________________ चतुर्थ खण्ड : ४५५ . 'आस्रव दो प्रकारका है । विवरण-एक द्रव्यास्रव है, एक भावास्रव है। द्रव्यास्रव कहनेपर कर्मरूप बैठे हैं आत्माके प्रदेशोंमें पुद्गलपिण्ड, ऐसे द्रव्यास्रवसे जीव स्वभाव ही से रहित है। यद्यपि जीवके प्रदेश, कर्मपुद्गलपिण्डके प्रदेश एक ही क्षेत्र में रहते हैं तथापि परस्पर एक द्रव्यरूप नहीं होते हैं, अपने अपने द्रव्य-गुणपर्यायरूप रहते हैं। इसलिए पुद्गलपिण्डसे जीव भिन्न है ! भावास्रव कहनेपर मोह, राग, द्वेषरूप विभाव अशुद्ध चेतन परिणाम सो ऐसा परिणाम यद्यपि जीवके मिथ्यादृष्टि अवस्थामें विद्यमान ही था तथापि सम्यक्त्वरूप परिणमने पर अशुद्ध परिणाम मिटा । इस कारण सम्यग्दृष्टि जीव भावात्रवसे रहित है । इससे ऐसा अर्थ निपजा कि सम्यग्दष्टि जीव निरास्रव है।' (कलश ११९) सम्यग्दृष्टि कर्मबन्धका कर्ता क्यों नहीं इसका निर्देश 'कोई अज्ञानी जीव ऐसा मानेगा कि सम्यग्दृष्टि जीवके चारित्रमोहका उदय तो है, वह उदयमात्र होने पर आगामी ज्ञानावरणादि कर्मका बन्ध होता होगा ? समाधान इस प्रकार है-चारित्रमोहका उदयमात्र होने पर बन्ध नहीं है । उदयके होने पर जो जीव के राग, द्वेष, मोह, परिणाम हो तो कर्मबन्ध होता है, अन्यथा सहस्र कारण हो तो भी कर्मबन्ध नहीं होता। राग, द्वेष, मोह परिणाम भी मिथ्यात्व कर्मके उदयके सहारा है, मिथ्यात्वके जाने पर अकेले चारित्रमोहके उदयके सहाराका राग, द्वेष, मोह परिणाम नहीं है। इस कारण सम्यग्दुष्टिके राग, द्वेष, मोह परिणाम होता नहीं, इसलिए कर्मबन्धका कर्ता सम्यग्दृष्टि जीव नहीं होता।' (कलश १२१) सम्यग्दृष्टिके बन्ध नहीं है इसका तात्पर्य 'जब जीव सम्यक्त्वको प्राप्त करता है तब चारित्रमोहके उदयमें बन्ध होता है, परन्तु बन्धशक्ति हीन होती है, इसलिए बन्ध नहीं कहलाता।' (कलश १२४) निर्विकल्प अर्थ काष्ठके समान जड़ नहीं इस तथ्यका खुलासा 'शुद्धस्वरूपके अनुभवके काल जीव काष्ठके समान जड़ है ऐसा भी नहीं है, सामान्यतया सविकल्पी जीवके समान विकल्पी भी नहीं है, भावभुतज्ञानके द्वारा कुछ निर्विकल्प वस्तुमात्रको अवलम्बता है, अवश्य अवलम्बता है।' (कलश १२५) शुद्ध ज्ञानमें जीतपना कैसे घटता है 'आस्रव तथा संवर परस्पर अति ही वैरी हैं, इसलिए अनन्त कालसे लेकर सर्व जीवराशि विभाव मिथ्यात्वरूप परिणमता है, इस कारण शुद्ध ज्ञानका प्रकाश नहीं है । इसलिए आस्रवके सहारे सर्व जीव हैं । काललब्धि पाकर कोई आसन्न भव्य जीव सम्यक्त्वरूप स्वभाव परिणति परिणमता है, इससे शुद्ध प्रकाश प्रगट होता है, इससे कर्मका आस्रव मिटता है, इससे शुद्ध ज्ञानका जीतपना घटित होता है ।' (कलश १३०) भेदज्ञान भी विकल्प है इसका सकारण निर्देश-- 'निरन्तर शुद्ध स्वरूपका अनुभव कर्तव्य है। जिस काल सकल कर्मक्षय लक्षण मोक्ष होगा उस काल समस्त विकल्प सहज ही छूट जायेंगे। वहाँ भेदविज्ञान भी एक विकल्परूप है, केवलज्ञानके समान जीवका शुद्ध स्वरूप नहीं है, इसलिए सहज ही विनाशीक है।' (कलश १३३) निर्जराका स्वरूप___'संवरपूर्वक जो निर्जरा सो निर्जरा, क्योंकि जो संवरके बिना होती है सब जीवोंको उदय देकर कर्मकी निर्जरा सो निर्जरा नहीं है।' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012004
Book TitleFulchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain, Kailashchandra Shastri
PublisherSiddhantacharya Pt Fulchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Varanasi
Publication Year1985
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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