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________________ चतुर्थ खण्ड : ४४७ वस्तु चेतना लक्षण तौ सहज ही छै । परि मिथ्यात्व परिणाम करि भभ्यो होता अपना स्वरूप कह नहीं जाने छै । तिहि सहि अज्ञानी ही कहिजे । तहि तहि इसौ कह्यौ जो मिथ्या परिणामके गया थी यौ ही जीव अपना स्वरूपको अनुभवनशीली होहु । कलश ६ । स्वभावतः खण्डान्वयरूपसे अर्थ लिखनेकी पद्धतिमें विशेषणों और तत्सम्बन्धी सन्दर्भका स्पष्टीकरण बादमें किया जाता है। ज्ञात होता है कि इसी कारण उत्तर कालमें प्रत्येक कलशके प्रकृत अर्थको 'खण्डान्वय सहित अर्थ' पद द्वारा उल्लिखित किया जाने लगा है। किन्तु इसे स्वयं कविवरने स्वीकार किया होगा ऐसा नहीं जान पड़ता, क्योंकि इस पद्धतिसे अर्थ लिखते समय जो शैली स्वीकारकी जाती है वह इस टीकामें अविकलरूपसे दृष्टिगोचर नहीं होती। ___टीकामें दूसरी विशेषता अर्थ करनेकी पद्धतिसे सम्बन्ध रखती है, क्योंकि कविवरने प्रत्येक शब्दका अर्थ प्रायः शब्दानुगामिनी पद्धतिसे न करके भावानुगामिनी पद्धतिसे किया है। इससे प्रत्येक कलशमें कौन शब्द किस भावको लक्ष्यमें रखकर प्रयुक्त किया गया है इसे समझने में बड़ी सहायता मिलती है । इस प्रकार यह टीका प्रत्येक कलशके मात्र शब्दानुगामी अर्थको स्पष्ट करनेवाली टीका न होकर उसके रहस्यको प्रकाशित करनेवाली भावप्रवण टीका है। में जो तीसरी विशेषता पाई जाती है वह आध्यात्मिक रहस्यको न समझनेवाले महानुभावोंको उतनी रुचिकर प्रतीत भले ही न हो पर इतने मात्र उसकी महत्ता कम नहीं की जा सकती । उदाहरणार्थ तीसरे कलशको लीजिये। इसमें षष्ठयन्त 'अनुभूतेः' पद और उसके विशेषणरूपसे प्रयुक्त हुआ पद स्त्रीलिंग होनेपर भी उसे 'मम' का विशेषण बनाया गया है। कविवरने ऐसा करते हुए 'जो जिस समय जिस भावसे परिणत होता है, तन्मय होता है' इस सिद्धान्तको ध्यानमें रखा है। प्रकृतमें सार बात यह है कि कवि अपने द्वारा किये गये अर्थद्वारा यह सूचित करते हैं कि यद्यपि द्रव्याथिक दष्टिसे आत्मा चिन्मात्रमति है, तथापि आनुभतिमें जो कल्मषता शेष है तत्स्वरूप मेरी परम विशुद्धि होओ अर्थात् रागका विकल्प दूर होकर स्वभावमें एकत्व बुद्धिरूप में परिणम । सम्यग्दृष्टि द्रव्यदृष्टि होता है, इसलिए वह स्वभावके लक्ष्यसे उत्पन्न हुई पर्यायको तन्मयरूपसे ही अनुभवता है। आचार्य अमृतचन्द्र द्वारा भेद विवक्षासे किये गये कथनमें यह अर्थ गर्भित है यह कविवरके उक्त प्रकारसे किये गये अर्थका तात्पर्य है। यह गूढ़ रहस्य है जो तत्त्वदृष्टिके अनुभवमें ही आ सकता है। इस प्रकार यह टीका जहाँ अर्थगत अनेक विशेषताओंको लिये हुए हैं वहाँ इस द्वारा अनेक रहस्योंपर भी सुन्दर प्रकाश डाला गया है । यथा नमः समयसाराय (क० १)-समयसारको नमस्कार हो । अन्य पुद्गलादि द्रव्यों और संसारी जीवोंको नमस्कार न कर अमुक विशेषणोंसे युक्त समयसारको ही क्यों नमस्कार किया है ? वह रहस्य क्या है ? प्रयोजनको जाने बिना मन्द पुरुष भी प्रवृत्ति नहीं करता ऐसा न्याय है । कविवरके सामने यह समस्या थी। उसी समस्याके समाधान स्वरूप वे 'समयसार' पदमें आये हुए 'सार' पदसे व्यक्त होनेवाले रहस्यको स्पष्ट करते हुए लिखते हैं 'शुद्ध जीवके सारपना घटता है। सार अर्थात् हितकारी, असार अर्थात् अहितकारी। सो हितकारी सुख जानना, अहितकारी दुख जानना । कारण कि अजीव पदार्थ पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश, कालके और संसारी जीवके सुख नहीं, ज्ञान भी नहीं, और उनका स्वरूप जानने पर जाननहारे जीवको भी सुख नहीं, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012004
Book TitleFulchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain, Kailashchandra Shastri
PublisherSiddhantacharya Pt Fulchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Varanasi
Publication Year1985
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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