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________________ ४४६ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ नय विशेषसे श्रीसमयसार परमागमके स्वरूपको प्रकाशित करनेवाला उसका आत्मभूत लक्षण कहा जाये तो कोई अत्युक्ति न होगी। श्रीसमयसार परमागमकी यह वृत्ति किस प्रयोजनसे निबद्धकी गई है इस स्पष्ट करते हुए आचार्य अमतचन्द्र तीसरे कलशमें स्वयं लिखते हैं कि इस द्वारा शुद्धचिन्मात्र मूर्तिस्वरूप मेरे अनुभवरूप परिणतिकी परमविशुद्धि अर्थात् रागादि विभाव परिणति रहित उत्कृष्ट निर्मलता होओ । स्पष्ट है कि उन द्वारा स्वयं आत्मख्याति वृत्तिके विषयमें ऐसा भाव व्यक्त करना उसी तथ्यको सूचित करता है जिसका हम पर्वमें निर्देश कर आये हैं । वस्तुतः आत्मख्यातिवृत्तिका प्रतिपाद्य विषय श्रीसमयसार परमागममें प्रतिपादित रहस्यको सुस्पष्ट करना है। इसलिये श्रीसमयसार परमागम और आत्मख्यातिवृत्तिमें प्रतिपाद्य-प्रतिपादक सम्बन्ध होनेके कारण आत्मख्यातिवृत्ति द्वारा श्रीसमयसार परमागमका आत्मा ही सुस्पष्ट किया गया है। इस लिये नय विशेषसे इसे श्रीसमयसार परमागमका आत्मभूत लक्षण कहना उचित ही है। इसकी रचनाकी अपनी मौलिक विशेषता है । जहाँ यह श्रीसमयसार परमागमकी प्रत्येक गाथाके गूढ़तम अध्यात्म विषयको एकलोलीभावसे आत्मसात् करनेमें दक्ष है वहाँ यह बीच-बीच में प्रतिपादित श्री जिनमन्दिरके कलशस्वरूप कलशों द्वारा विषयको साररूपमें प्रस्तुत करनेकी क्षमता रखती है। कलशकाव्योंकी रचना आसन्न भव्य जीवोंके हृदयरूपी कुमुदको विकसित करनेवाली चन्द्रिकाके समान इसी मनोहारिणी शैलीका सुपरिणाम है। यह अमृतका निर्झर है और इसे निर्धारित करनेवाले चन्द्रोपम आचार्य अमृतचन्द्र हैं । लोकमें जो अमरता प्रदान करनेवाले अमृतकी प्रसिद्धि है, जान पड़ता है कि अमृतके निर्झर स्वरूप इस आत्मख्यातिवृत्ति से प्राप्त होनेवाली अमरताको दृष्टिमें रखकर ही उक्त ख्यातिने लोकमें प्रसिद्धि पाई है । धन्य हैं वे भगवान् कुन्दकुन्द, जिन्होंने समग्र परमागमका दोहन कर श्रीसमयसार परमागम द्वारा पूरे जिनशासनका दर्शन कराया । और धन्य हैं वे आचार्य अमृतचन्द्र, जिन्होंने आत्मख्यातिवृत्तिकी रचना कर पूरे जिनशासनके दर्शन करानेमें अपर्व योगदान प्रदान किया। समयसारकलश बालबोध टीका ऐसे हैं ये दोनों श्री समयसार परमागम और उसके हार्दको सुस्पष्ट करनेवाली आत्मख्यातिवृत्ति । यह अपूर्व योग है कि कविवर राजमल्लजीने परोपदेशपूर्वक या तदनुरूप पूर्व संस्कारवश निसर्गतः उनके हार्दको हृदयंगम करके अपने जीवनकालमें प्राप्त विद्वत्ताका सदुपयोग साररूपसे निबद्ध कलशोंकी बालबोध टीकाको लिपिबद्ध करनेमें किया। यह टीका मोक्षमार्गके अनुरूप अपने स्वरूपको स्वयं प्रकाशित करती है, इसलिए तो प्रमाण है ही। साथ ही वह जिनागम, गुरु-उपदेश, युक्ति और स्वानुभव प्रत्यक्षको प्रमाण कर लिखी गई है, इसलिए भी प्रमाण है; क्योंकि जो स्वरूपसे प्रमाण न हो उसमें परतः प्रमाणता नहीं आती ऐसा न्याय है। यद्यपि यह ढूंढारी भाषामें लिखी गई है, फिर भी गद्य काव्य सम्बन्धी शैली और पदलालित्य आदि सब विशेषताओंसे ओत-प्रोत होनेके कारण वह भव्यजनोंके चित्तको आह्लाद उत्पन्न करनेमें समर्थ है। वस्तुतः इसकी रचनाशैली और पदलालित्य अपनी विशेषता है। इसकी रचनामें कविवर सर्व प्रथम कलशगत अनेक पदोंके समुदायरूप वाक्यको स्वीकारकर आगे उसके प्रत्येक पदका या पदगत शब्दका अर्थ स्पष्ट करते हुए उसका मथितार्थ क्या है यह लिपिबद्ध करनेके अभिप्रायसे 'भावार्थ इस्यो' यह लिखकर उस वाक्यमें निहित रहस्यको स्पष्ट करते हैं। टीकामें यह पद्धति प्रायः सर्वत्र अपनाई गई है। यथा तत् नः अयं एकः आत्मा अस्तु-तत् कहतां तिहि कारण तहि, नः कहतां हम कहुँ अयं कहतां विद्यमान छै, एकः कहतां शुद्ध, आत्मा कहता चेतन पदार्थ, अस्तु कहतां होउ। भावार्थ इस्यो-जो जोव अस्तु कहता हात कहतव हम यो जहाव Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012004
Book TitleFulchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain, Kailashchandra Shastri
PublisherSiddhantacharya Pt Fulchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Varanasi
Publication Year1985
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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