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________________ चतुर्थ खण्ड : ४३९ यहाँ सूत्रकारने ७वें और ८वें सूत्रमें जितने हेतु और उदाहरण दिए हैं उन द्वारा मुक्त जीवका एकमात्र ऊर्ध्वगति स्वभाव ही सिद्ध किया गया है ऐसा यहाँ समझना चाहिए । ९ वें सूत्रमें ऐसे १२ अनुयोगों का निर्देश किया गया है जिनके माध्यमसे मुक्त होनेवाले जीवों के विषय में अनेक उपयोगी सूचनाओंका परिज्ञान हो जाता है । उनमें एक चारित्र विषयक अनुयोग है । प्रश्न है कि किस चारित्र से सिद्धि होती है ? उसका समाधान करते हुए एक उत्तर यह दिया गया है कि नाम रहित चारित्रसे सिद्धि होती है । इस पर कितने ही मनीषी ऐसा विचार रखते हैं कि सिद्धों में कोई चारित्र नहीं होता । किन्तु इसी तत्त्वार्थसूत्रमें जीवके जो नौ क्षायिक भाव परिगणित किए गये हैं उनमें एक क्षायिक चारित्र भी है। और ऐसा नियम है कि जितने भी क्षायिक भाव उत्पन्न होते हैं वे सब परनिरपेक्ष भाव होनेसे प्रतिपक्षी द्रव्यभाव कर्मोंका क्षय होनेपर एकमात्र स्वभावके आलम्बनसे ही उत्पन्न होते हैं, अतः वे सिद्ध पर्यायके समान अविनाशी होते हैं । अतः सिद्धों में केवल ज्ञान आदिके समान स्वरूप स्थिति अर्थात् स्वसमय प्रवृत्तिरूप अनिधन सहज चारित्र जानना चाहिए। उसकी कोई संज्ञा नहीं है, इसलिए उनमें उसका अभाव स्थापित करना उचित नहीं है। लोकमें एक यह बात भी प्रचारित की जाती है कि कालमें इस क्षेत्रसे कोई मुक्त नहीं होता सो यह बात भी ठीक नहीं है क्योंकि मुक्ति प्राप्तिके लिए न तो कोई काल ही बाधक है और न मनुष्य लोक सम्बन्धी कोई अवश्य है कि चौथे काल और उत्सर्पिणीके तीसरे काल सम्बन्धी इन भरत क्षेत्रमें हैं जो चरम शरीरी होते हैं यह सहज नियम है। इस क्षेत्र सम्बन्धी प्रायः अवसर्पिणीके चौथे कालमें और उत्सर्पिणीके तीसरे कालमें ही ऐसे मनुष्य जन्म लेते हैं जो चरम शरीरी होते हैं यह प्राकृतिक नियम 1 अतः इस क्षेत्र और इस कालको दोषी बतलाकर मोक्षमार्गके अनुरूप उद्यम न करना योग्य नहीं है ऐसा यहाँ समझना चाहिए | क्षेत्र ही बाधक है । इतना ऐसे मनुष्य भी जन्म लेते इस प्रकार तत्वार्थ सूत्र में किन विषयोंका निर्देश किया गया है इसका संक्षेपमें विचार किया । वृत्ति, भाष्य और टीका ग्रन्थ १. सर्वार्थसिद्धि दिगम्बर परम्परामें सूत्र शैली में लिपिबद्ध हुई तत्त्वार्थसूत्र और परीक्षामुख ये दो ऐसी मौलिक रचनाएँ हैं जिनपर अनेक वृत्ति, भाष्य और टीका ग्रन्थ लिखे गये हैं । वर्तमान कालमें उपलब्ध 'सर्वार्थसिद्धि' यह तत्त्वार्थ सूत्र पर लिखा गया सबसे पहला वृत्ति ग्रन्थ है । यह स्वनामधन्य आचार्य पूज्यपाद की अमर कृति है । यह पाणिनि व्याकरण पर लिखे गये पातञ्जल भाष्यकी शैलीमें लिखा गया है। यदि किसीको शान्त रस गर्भित साहित्य के पढ़नेका आनन्द लेना हो तो उसे इस ग्रन्थका अवश्य ही स्वाध्याय करना चाहिए । आचार्य पूज्यपादके सामने इस वृत्ति ग्रन्थकी रचना करते समय षट्खण्डागम प्रभृति बहुविध प्राचीन साहित्य उपस्थित था । उन्होंने इस समग्र साहित्यका यथास्थान बहुविध उपयोग किया है'। साथ ही उनके इस वृत्ति ग्रन्थके अवलोकनसे यह भी मालूम पड़ता है कि इसकी रचनाके पूर्व तत्त्वार्थसूत्र पर ( टीकाटिप्पणी रूप) और भी अनेक रचनाएँ लिपिबद्ध हो चुकी थीं। वैसे वर्तमान में उपलब्ध यह सर्वप्रथम रचना है। श्वेताम्बर परम्परामान्य तत्त्वार्थाधिगमभाष्य इसके बादकी रचना है । सर्वार्थसिद्धिके अवलोकनसे इस बातका तो पता लगता है कि इसके पूर्व श्वेताम्बर आगम साहित्य रचा जा चुका था, परन्तु तत्त्वार्थाधिगमभाष्य लिखा जा चुका था २. देखो, प्रस्तावना, सर्वार्थसिद्धि, पृ० ४२ । १. देखो, प्रस्तावना, सर्वार्थसिद्धि, पृ० ४६ आदि । ३. देखो, अ० ७ सु० १३ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012004
Book TitleFulchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain, Kailashchandra Shastri
PublisherSiddhantacharya Pt Fulchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Varanasi
Publication Year1985
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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