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________________ चतुर्थ खण्ड : ४०१ इससे मालूम पड़ता हैं कि अपने व्रती जीवनमें उन्होंने इन सब दोषोंके परिहारपूर्वक पूर्ण ब्रह्मचर्यका भी सम्यक् प्रकारसे पालन किया। ५. मुनि-जीवन स्वयंको अध्यात्ममय सांचेमें ढालनेके लिए और अपने संकल्पके अनुसार समाजको मार्गदर्शन करनेके लिए उन्हें जो भी करणीय था उसे वे ६० वर्षकी उम्र होने तक सम्पन्न कर चके थे। संयमके अभ्यास द्वारा उन्होंने अपने चित्तको पूर्ण विरक्त तो बना ही लिया था, अतः वे अन्य सब प्रयोजनोंसे मुक्त होकर पूरी तरहसे आत्मकार्य सम्पन्न करनेमें जुट गये (१) ठिकानेसार (खुरई) पत्र २२१ (३) ठिकानेसार (ब० जी०) पत्र ८५ । अर्थात् उन्होंने श्रावक पदकी निवृत्ति पूर्वक मुनि पद अंगीकार कर लिया। छद्मस्थवाणीके उत्पन्न भेष उवसग्ग सहन इत्यादि वचनसे भी यही ध्वनित होता है कि साठ वर्षकी उम्र होनेपर उन्होंने नियमसे श्रावक पदसे निवृत्ति ले ली होगी और मुनिपद अंगीकार कर वे पूर्ण रूपसे संयमी बन गये होंगे । इस पदपर वे अनेक प्रकारके मानवीय तथा दूसरे प्रकारके उपसर्गोको सहन करते हुए ६ वर्ष, ५ माह १५ दिन रहे और जेठ वदी सप्तमी सं० १५७२ को इहलीला समाप्त कर स्वर्गवासी हए । यह स्वामीजीका संक्षिप्त जीवन-परिचय है। इसे हमने छद्मस्थवाणीके मिथ्याविलि वर्ष ग्यारह इत्यादिके आधार पर लिपिबद्ध किया है । यद्यपि छद्मस्थवाणीके उक्त वचन गूढ़ है । पर उनमें स्वामीजीकी जीवन-कहानी ही लिपिबद्ध हुई है, यह पूरे प्रकरण पर दृष्टिपात करनेसे स्पष्ट हो जाता है। उनकी जीवनीको लिपिबद्ध करते समय हमने छद्मस्थवाणीके उक्त वचनोंको और तात्कालिक परिस्थितिको विशेष रूपसे ध्यानमें रखा है। इसमें हमने अपनी ओरसे कुछ भी मिलाया नहीं है और न उनके विषयमें फैली अनेक उलट पुलट मान्यताओंकी ही चर्चा की है। स्वामीजीका जीवन गौरवपूर्ण था। वे छल प्रपंचसे बहुत दूर थे। भय उनके जीवनमें कहीं भी नहीं था। उन्हें अनादिनिधन अपने ज्ञायकस्वभाव आत्माका पर्ण बल प्राप्त था । वे उसके लिये ही जिये और उसकी भावनाके साथ ही स्वर्गवासी हुए। ऐसे दृढ़ निश्चयी महान् आत्माके अनुरूप हमारा जीवन बने, यह भावना है। स्वामीजीने अपने जीवनमें अनेक महत्त्वपूर्ण ग्रन्थोंकी रचना की। उनमें आचारकी दृष्टिसे श्रावकाचार मुख्य हैं और अध्यात्मकी दृष्टिसे भयखिपनिक, ममल पाहुड, उपदेश शुद्धसार तथा ज्ञानसमुच्चयसार मुख्य हैं । तीन बत्तीसीकी रचना भी प्रायः इसी दृष्टिकोणसे हुई है। सिद्धि स्वभाव ग्रन्थका अपना अलग स्थान है। मुख अध्यात्मकी ओर ही है। अन्य सब ग्रन्थोंकी भिन्न-भिन्न प्रयोजनोंको लक्ष्यमें रखकर रचना हुई है। स्वामीजीका समग्र जीवन अध्यात्मस्वरूप होनेसे उन सब रचनाओंके द्वारा पुष्टि अध्यात्मकी ही होती है। उक्त सब रचनाओंमेंसे ९ रचनाएँ गद्य मय हैं। भाषाकी स्वतन्त्रता है। स्वामीजीने किसी एक भाषा और व्याकरणके नियमोंमें अपनेको जकड़ कर रचनाएँ नहीं की हैं। जहाँ जिस भाषामें अपने हृदयके भावोंको व्यक्त करना स्वामीजीको उचित प्रतीत हआ वहाँ उस भाषाका अवलम्बन लिया गया है । रचनाओंमें प्राकृत, संस्कृत, अपभ्रंश और बोलचालकी हिन्दी इन चारों भाषाओंके शब्दोंका समावेश किया गया है। अनेक स्थलों पर मुहावरेके वाक्यों को भी स्थान दिया गया है। कई स्थलों पर रचनाका प्रवाह गढ़ हो जानेसे स्वामीजीके हृदयकी थाह लेनेके लिये अथक परिश्रम अपेक्षित है। स्वामीजी मर्मज्ञ तत्त्ववेत्ता होनेके साथ संगीतज्ञ भी रहे हैं। लगता है कि वे अपने स्वात्मचिन्तन-मनन और जनसम्पर्कके समय अपनी इस सहज प्राप्त सर्वजनप्रिय कोमल कलाका बहलतासे उपयोग करते रहे होंगे। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012004
Book TitleFulchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain, Kailashchandra Shastri
PublisherSiddhantacharya Pt Fulchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Varanasi
Publication Year1985
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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