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________________ ४००: सिद्धान्ताचार्य पं० फलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ देवेन्द्रकीर्तिके) सम्पर्कमें रह कर शास्त्राभ्यास करनेका हुआ हो तो इसमें कोई आश्चर्य नहीं । अतएव लगता है कि ११ वर्षके होनेपर वे अपने परिवारसे विदा होकर उनके पास शास्त्राभ्यासके लिए चले गये होंगे । समय शब्द, छह द्रव्य नौपदार्थ और द्रव्य श्रुत दोनोंके अर्थमें आता है । अतः 'समय मिथ्या विली वर्ष दससे प्रकृतमें यही अर्थ फलित होता है कि ११ वर्षके होनेपर २२ वर्षकी उम्रके होंगे तब स्वामीजीने अपने शिक्षागरुकी शरणमें रहकर शास्त्रीय अभ्यास द्वारा अपने शास्त्र विषयक मिथ्यात्व (अज्ञान) को दूर किया। ४. स्वात्मचिन्तन मनन जीवन स्वामीजीका जीवन तो दूसरे सांचे में ढलना था, उन्हें कोई भट्टारक तो बनना नहीं था, इसलिये लगता है कि वे २१ वर्षकी उम्र होनेपर अपने शिक्षा रुका सानिध्य छोड़कर सेमरखेड़ी अपने मामाके घर चले आये होंगे और वहाँके शान्त निर्जन प्रदेशको पाकर एकान्तमें स्वात्मचिन्तन मननमें लग गये होंगे। यहाँ सेमरखेड़ीसे कुछ दूर पहाड़ी प्रदेश है, उसके परिसर और ऊपरी भागमें चार गुफाओंके सन्निकट एक पहाड़ी नदी है । प्रदेश बड़ा मनोहर और चित्ताकर्षक है। सम्भव है छद्मस्थवाणीका प्रकृति मिथ्या विली वर्ष नौ' यह वचन इसी अर्थको सूचित करता है कि स्वामीजीने ऐसा एकान्त निर्जन प्रदेश पाकर ध्यान, चिन्तन, मनन द्वारा अपनी उत्तर-कालीन जीवन-रेखा यहींपर स्पष्ट और पुष्ट की। उनके स्वभावमें मार्गके निर्णय विषयक जो अस्पष्टता थी उसे भी इन नौ वर्षोंके चिन्तन-मनन द्वारा दूर किया। अब उनके सामने एक स्पष्ट ध्येय था, जिसपर चलनेके लिये वे बलपरिपक्व हो गये। वैसे तो ठिकानेसारकी तीनों प्रतियोंमें स्वामीजीके अनेक स्थानोंपर विचरनेका उल्लेख मिलता है, उनमें एक सेमरखेड़ी भी है. पर उन सब उल्लेखोंसे सेमरखेड़ी विषयक उल्ले बमें अन्तर है। यह उनके माम निवासस्थान भी था। इससे लगता है कि स्वामीजीके निवासका सेमरखेड़ी खास स्थान रहा होगा ? और वहींसे वे धर्मको प्रभावना निमित्त अन्य ग्रामों या नगरों में जाते रहे होंगे । मात्र इसलिये हमने उनके सेमरखेडीके निर्जन प्रदेशमें गिरि गुफाओंमें स्वस्थचित्त हो ध्यान-अध्ययन करनेका विशेष रूपसे उल्लेख किया है। ४. ब्रह्मचर्य सहित निरतिचार व्रतो जीवन जैसा कि हम पहले बतला आये हैं अपने जन्म-समयसे लेकर पिछले ३० वर्ष स्वामीजीको शिक्षा और दूसरे प्रकार अपनी आवश्यक तयारीमें लगे । इस बीच उन्होंने यह भी अच्छी तरह जान लिया कि मूल संघ कुन्दकुन्द आम्नायके भट्टारक भी किस गलत मार्गसे समाजपर अपना वर्चस्व स्थापित करते हैं। उसमें उन्हें मार्गविरुद्ध क्रियाकाण्डको भी प्रतीति हुई। अतः उन्होंने ऐसे मार्गपर चलनेका निर्णय लिया जिसपर चलकर भट्टारकोंके पूजा आदि सम्बन्धी क्रियाकाण्डकी अयथार्थको समाज हृदयंगम कर सके । किन्तु इसके लिये उनकी अब तक जितनी तैयारी हुई थी उसे उन्होंने पर्याप्त नहीं समझा। इन्होंने अनुभव किया कि जब तक मैं अपने वर्तमान जीवनको संयमसे पष्ट नहीं करता तब तक समाजको दिशादान करना सम्भव नहीं है। यही कारण है कि ३० वर्षकी जवानीकी उम्रमें सर्वप्रथम वे स्वयंको व्रती बनानेके लिये अग्रसर हुए। छद्मस्थवाणीके 'मिथ्याविली वर्ष सात' इत्यादि वचनोंसे ज्ञात होता है कि उन्होंने मिथ्यात्व, माया और निदान इन तीन शल्योंके त्यागपूर्वक इस उम्रमें व्रत स्वीकार किये । जिनमें उत्तरोत्तर विशुद्धि उत्पन्न करते हुए वे इस पदपर सात वर्ष तक रहे। उन्होंने अपनी रचनाओंमें जनरंजन राग, कलरंजन दोष और मनरंजन दोष और मनरंजन गारवको त्यागनेका पद-पदपर उपदेश किया है। यहाँ जनरंजन रागसे चारों प्रकारकी विकथायें ली गई हैं। कलरंजन दोषसे दस प्रकारके अब्रह्मको ग्रहण किया गया है और मनरंजन गारवसे सम्यक्त्वके २५ मल' लिये गये हैं १. ठिकानेसार (ब्र० जी) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012004
Book TitleFulchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain, Kailashchandra Shastri
PublisherSiddhantacharya Pt Fulchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Varanasi
Publication Year1985
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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