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________________ प्रथम खण्ड: ३१ अगाध वैदुष्यके धनी •प्रो० उदयचन्द्र जैन, वाराणसी पूज्य पंडित जीका वैदुष्य अगाध है। कर्म सिद्धान्तके तो आप तलस्पर्शी विद्वान् है । यही कारण है कि धवला, जयधवला और महाधवला (महाबन्ध) जैसे उच्चकोटिके जैन सिद्धान्तके ग्रन्थोंमें आपकी अनोखी पैठ है । जैनतत्त्वमीमांसामें तथा खानिया तत्त्वचर्चा (२ भागों) में जैनदर्शन तथा जैन सिद्धान्तके निमित्त-उपादान, कार्यकारण, कर्ता-कर्म, क्रमनियमित पर्याय, सम्यक् नियति स्वरूप, निश्चय-व्यवहार आदि विषयोंपर आपने जो तलस्पर्शी विवेचन किया है वह आपके द्वारा सिद्धान्त ग्रन्थोंके गहन अध्ययन, मनन और चिन्तनका ही आप स्वाभिमानी तथा स्वतन्त्र प्रकृतिके मनीषी हैं । किसीके बन्धनमें रहना आपको पसन्द नहीं है। गजको संस्थाओंमें अधिक समय तक कार्य नहीं किया है। आपके जीवनका अधिकांश समय स्वतंत्र रूपसे साहित्यिक, सामाजिक आदि कार्य करते हुए ही व्यतीत हुआ है । सन् १९४० से १९८३ तक वाराणसीमें स्वतन्त्र रूपसे रहते हुए ही आपने अनेक महत्त्वपूर्ण कार्य किये हैं। प्रातः स्मरणीय पूज्य गणेशप्रसादजी वर्णी जैन विद्वानोंके लिए आधुनिक राजा भोज थे। वर्णीजीने जैनधर्म, जैनवाङ्मय और जैन संस्कृतिके उद्धार एवं विकासमें महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है । इसलिए पं० देवकीनन्दनजी शास्त्री, पं० पन्नालालजी काव्यतीर्थ, पं० महेन्द्रकुमारजी न्यायाचार्य और पं० फूलचन्द्रजी शास्त्री प्रभृति विद्वानोंने वर्णीजीके प्रति कृतज्ञताज्ञापन स्वरूप सन् १९४७ में श्री गणेशप्रसाद वर्णी जैन ग्रन्थमालाकी स्थापना की थी। दि० जैन विद्वत्परिषदकी कार्यकारिणी समितिके अधिवेशनके अवसर पर श्री मढियाजी (जबलपुर) में वर्णी ग्रन्थमालाकी स्थापनाका प्रस्ताव स्वीकृत कराया। मैंने श्री स्याद्वाद महाविद्यालय, वाराणसीमें रहकर सन् १९४९ में सर्वदर्शनाचार्य तथा एम० ए० की परीक्षा उत्तीर्ण की। तब आपने मुझसे कहा कि जब तक अन्यत्र योग्य स्थान न मिले तब तक वर्णी ग्रंथमालामें रहकर कार्य करना चाहो तो करो। अन्यत्र स्थान मिल जानेपर वर्णी ग्रन्थमालाको छोड़नेकी स्वतन्त्रता रहेगी। मुझे पंडितजीका उक्त कथन अच्छा लगा। तदनुसार मैंने वर्णी ग्रन्थमालामें रहकर कार्य करना प्रारम्भ कर दिया और लगभग १० माह तक पंडित जीके निर्देशन में कार्य किया। उस समय मैंने आचार्य समन्तभद्रको महत्त्वपूर्ण दार्शनिक कृति 'आप्तमीमांसा'का अष्टशती और अष्टसहस्रीके आधारसे हिन्दी में विवेचन लिखा था। सन् १९७५ में पंडितजीने विशेष प्रयत्न करके वर्णो संस्थानसे 'आप्तमीमांसा-तत्त्वदीपिका'का प्रकाशन कराया। इसके प्रकाशनसे काशी हिन्द विश्वविद्यालयमें जैन-बौद्धदर्शनके रीडरके चयनमें मझे विशेष लाभ हुआ । यह मेरे प्रति पंडितजीके स्नेह और कृपाका ही फल था। इस प्रकार पंडितजीमें अनेक गुण विद्यमान हैं जिनकी गणना करना यहाँ संभव नहीं है। अन्तमें श्री जिनेन्द्रदेवसे यही प्रार्थना है कि पंडित जी शतायु होकर स्वस्थ रहते हुए चिरकाल तक हम लोगोंका मार्गदर्शन करते रहें। इस शभ अवसर पर मैं श्रद्धेय पंडित जीके चरणों में सविनय अपनी प्रणामाञ्जलि समर्पित करता हूँ। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012004
Book TitleFulchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain, Kailashchandra Shastri
PublisherSiddhantacharya Pt Fulchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Varanasi
Publication Year1985
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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