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________________ ३७८ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन ग्रन्थ मध्य में बने प्राकृत निर्वाणकाण्डके आधारसे बने भैया भगवतीदास (सं० १७४१ ) के भाषा निर्वाणकाण्डमें जिन सिद्ध व अतिशय क्षेत्रोंकी परिगणना की गई है उसमें भी कुण्डलपुरकी सिद्ध क्षेत्र या अतिशय क्ष ेत्रके रूपमें परिगणित नहीं किया गया। इससे यही प्रतीत होता है कि यह सिद्धक्षेत्र तो नहीं है अतिशय क्षेत्र भी १५ वीं-१६वीं शताब्दीके बाद प्रसिद्ध होना चाहिये ।' यह कोठियाजीका वक्तव्य है । इससे मालूम पड़ता है कि उन्होंने निर्वाणकाण्डके दोनों पाठोंका सम्यक् अवलोकन नहीं किया है | निर्वाणकाण्डका एक पाठ ज्ञानपीठ पूजांजलिमें छपा है । उसमें कुल २१ गाथाएँ हैं । दूसरा पाठ क्रियाकलापमें छपा है । उसमें पूर्वोक्त २१ गाथाएँ तो हैं ही उनके सिवाय ८ गाथाएँ और हैं । इसलिये कोठियाजीका यह लिखना कि निर्वाणकाण्डमें कुंडलगिरिका किसी भी रूपमें उल्लेख नहीं है, ठीक प्रतीत नहीं होता । निर्वाणकाण्डका जो दूसरा पाठ मिलता है उसकी २१ + ५ = २६वीं गाथामें 'णिवणकुंडली वंदे' इस गाथा. चौथे पाद (चरण) द्वारा निर्वाण क्षेत्र कुण्डलगिरिकी ही वन्दना की गई है । यहाँ 'णिवण' पद निर्वाण अर्थको सूचित करता है और 'कुण्डली' पद कुण्डलगिरि अर्थको सूचित करता है । 'विवण' पदमें 'आइमज्झतवण्णसरलोवो' इस नियमके अनुसार 'व्' व्यंजन और 'आ' का लोप होकर 'णिवण' पद बना है जो प्राकृत के नियमानुसार ठीक है । रही भैया भगवतीदासके भाषा निर्वाणकाण्डकी बात सो उन्हें २१ माथावाला निर्वाणकाण्ड मिला। इसलिये यदि उन्होंने भाषा निर्वाणकाण्डमें किसी भी रूपमें कुण्डलगिरिका उल्लेख नहीं किया तो इससे यह कहाँ सिद्ध होता है कि वह निर्वाणक्षेत्र नहीं है । आप प्राकृत या भाषा निर्वाणकाण्ड पढ़िये, उनमें यदि राजगृहीके पाँच पहाड़ों मेंसे वैभार आदि चार पहाड़ों को सिद्धक्षत्र रूपमें स्वीकार नहीं किया गया है तो क्या यह माना जा सकता हैं कि उक्त चार पहाड़ सिद्धक्षेत्र नहीं ही हैं । वस्तुतः सिद्धक्ष ेत्रों या अतिशय क्षेत्रोंके निर्णय करनेका यह मार्ग नहीं है । किन्तु इस सम्बन्ध में यह मान कर चला जाता है कि जिन आचार्यको जितने सिद्धक्षेत्रों या अतिशय क्षेत्रोंके नाम ज्ञात हुए उन्होंने उतने सिद्धक्षेत्रों और अतिशय क्षेत्रोंका संकलन कर दिया । दूसरे सोनागिरिके विषयमें चर्चा करते हुए उन्होंने अपने प्रथम लेखके अन्त में लिखा है कि 'अत: मेरे विचार और खोज से कुण्डलगिरिको सिद्धक्षेत्र घोषित करने या कराने की चेष्टा की जायगी तो एक अनिवार्य भ्रान्त परम्परा इसी प्रकारकी चल उठेगी जैसी कि वर्तमान केरीसिदीगिर और सोनागिरकी चल पड़ी है ।' उसीमें हेर-फेर करके जो उनका दूसरा लेख उनके अभिनन्दन ग्रन्थमें छपा है उसके अन्तमें वे लिखते हैं कि 'अतः मेरे विचार और खोजसे दमोह के कुण्डलपुर या कुण्डलगिरिको सिद्धक्ष ेत्र घोषित करना जल्दबाजी होगी और एक भ्रान्त परम्परा चल उठेगी । ' इसप्रकार कोठियाजीके ये दो उल्लेख हैं । पहले उल्लेख में तो उन्होंने वर्तमान केरीसिदीगिरि और सोनागिरको भी ले लिया है और दूसरे उल्लेखमें इन दोनोंको छोड़ दिया है । इन दो उल्लेखोंसे ऐसा लगता है कि पहले तो वे केरीसिदीगिर, सोनागिर और कुण्डलगिरि इन तीनोंको सिद्धक्षेत्र नहीं मानते रहे । और बादमें उन्होंने केरी सिदीगिर और सोनागिर को तो सिद्धक्षेत्र मान लिया है । मात्र कुण्डलfrost सिद्धक्ष ेत्र माननेमें उन्हें विवाद है । पर किस कारण से उन्होंने केरीसिदी गिर और सोनागिरको सिद्धक्षेत्र मान लिया है इस सम्बन्धमें वे मौन हैं। मात्र कुण्डलगिरिको सिद्धक्षेत्र न माननेमें उन्होंने जो तर्क दिये हैं वे कितने प्रमाणहीन हैं यह हम इसी लेखमें पहले ही स्पष्ट कर आये हैं । अतः हमारे लेखमें दिये गये तथ्योंके आधारपर यही मानना शेष रह जाता है कि सब ओरसे विचार करनेपर कुण्डलगिरि भी सिद्धक्षेत्र सिद्ध होता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012004
Book TitleFulchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain, Kailashchandra Shastri
PublisherSiddhantacharya Pt Fulchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Varanasi
Publication Year1985
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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