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________________ चतुर्थ खण्ड : ३७३ अर्वाचीन हैं । इसलिये यहाँ 'बड़े बाबा' के मुख्य मन्दिर सहित दो ब्रह्म मन्दिरोंका परिचय दे देना इष्ट प्रतीत होता है। (क) 'बड़े बाबा' का जो मुख्य मन्दिर है उसका क्रमांक ११ है । जैसा उसका नाम है, उतना ही वह विशाल है । उसका गर्भालय पाषाण निर्मित है। पहले गर्भालयका प्रवेश द्वार पुराने ढंगका बहुत छोटा था । और तलभाग बहुत गहरा था । उसमें सिंहासनपर विराजमान जो 'बड़े बाबा की मूर्ति है, उसे कई शताब्दियों तक तीर्थकर महावीरकी मूर्ति कहा जाता रहा। गर्भालयके बाहर दीवालमें जो शिलापट्ट लगाया गया है, उसमें भी उसे भगवान् महावीरकी मूर्ति कहा गया है। किन्तु वस्तुतः यह भगवान् महावीरकी मूर्ति न होकर भगवान् ऋषभदेवको मूर्ति है। क्योंकि बड़े बाबाकी मूतिमें दोनों कंधोंसे कुछ नीचे तक बालोंको दो-दो लटें लटक रही है और आसनके नीचे सिंहासनमें भगवान् ऋषभदेवके यक्ष-यक्षि अंकित किये गये है । मूर्ति पद्मासन मुद्रामें १२ फुट ६ इंच ऊँची है और उसकी चौड़ाई ११ फुट ४ इंच है। इसके दोनों पार्श्व भागोंमें ११ फुट १० इंच ऊँचे खड्गासन मुद्रामें ७ फणी भगवान पार्श्वनाथके दो जिनबिम्ब अवस्थित हैं। साथ ही प्रवेश द्वारको छोडकर तीनों ओर दीवालके सहारे प्राचीन जिनबिम्ब स्थापित किये गये है। मूल नायक बड़े बाबा 'अर्थात् भगवान ऋषभदेवको छोड़ कर ये सब जिनबिम्ब दोनों ब्रह्ममन्दिरोंसे और बर्रट गाँवसे लाकर यहाँ विराजमान किये गये हैं। (क्षेत्रके अन्य जिनमन्दिरों में भी प्राचीन प्रतिमायें अवस्थित हैं । वे भी इन्हीं स्थानोंसे लायी गयी जान पड़ती है)। इस कारण गर्भालयकी शोभा अपूर्व और मनोज्ञ बन गयी है। क्षेत्रकी शोभा बड़े बाबासे तो है ही, अन्य भी ऐसी अनेक विशेषतायें हैं जिनके कारण यह क्षेत्र अपूर्व महिमासे युक्त प्रतीत होता है। इस कारण प्रत्येक वर्ष वहाँ माघ माहमें मेला लगता है। श्री बलभद्रजी 'मध्यप्रदेशके जैनतीर्थ' पृ० १८९ में लिखते हैं कि 'ध्यानसे देखनेपर प्रतीत होता है कि बड़े बाबा और पार्ववर्ती दोनों पार्श्वनाथ प्रतिमाओंके सिंहासन मूलतः इन प्रतिमाओंके नहीं है । बड़े बाबाका सिंहासन दो पाषाण खण्डोंको जोड़कर बनाया गया प्रतीत होता है। इसी प्रकार पार्श्वनाथ प्रतिमाओंके आसन किन्हीं खड्गासन प्रतिमाओं के अवशेष जैसे प्रतीत होते हैं।' किन्तु यह वस्तुस्थिति नहीं है। बड़े बाबाका पृष्ठभाग जिस शिलाको काटकर यह मूर्ति बनायी गयी है, उससे जुड़ा हआ प्रतीत होता है और यह हो सकता है कि सिंहासन दो पाषाण खण्डोंसे बनाया गया है। पर मेरी नम्र रायमें उसे उसी स्थानपर निर्मित किया गया है। बारीकीसे देखनेपर जिस आसनपर बड़े बाबा विराजमान है, वह अन्यत्रसे नहीं लाया गया है। वहाँ आनेवाले दर्शनार्थियोंका कहना है कि सिंहासनमें गोलकके लिये एक सुराक बना हुआ था। उस सुराकमें रुपया पैसा डालनेपर तलभागमें वह कहाँ चला जाता था, इसका आजतक पता नहीं चला; इस कारण अब वह सुराक बन्द कर दिया गया है। वह स्थान कुछ भाइयोंने हमें भी दिखाया था। इससे तो ऐसा ही प्रतीत होता है कि बड़े बाबाका जिनबिम्ब और सिंहासन आदि जो कुछ भी निर्मित हआ है वह वहीं हआ है। फिर भी हमारी राय है कि पुरातत्वविदों व इंजीनियरोंको बुलाकर इन सब बातोंकी समीक्षा एक बार अवश्य करा लेना चाहिये ताकि इस सम्बन्धमें होनेवाले भ्रमको दूर किया जा सके । (ख) प्रथम ब्रह्म मन्दिर कुण्डलगिरिकी तलहटीमें स्थित है । मैं अनेक भाइयोंके साथ उसके अभ्यन्तर भागका अवलोकन करनेके लिये वहाँ गया था। उनमें समाजके प्रसिद्ध विद्वान् श्री पं० जगन्मोहनलालजी शास्त्री भी थे। किन्तु मन्दिरके द्वारपर कुछ भाइयोंने ताला लगा रखा है। इसलिये उसके भीतर प्रवेश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012004
Book TitleFulchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain, Kailashchandra Shastri
PublisherSiddhantacharya Pt Fulchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Varanasi
Publication Year1985
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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